जाट राजनीति ढही और दलित राजनीति खड़ी हो गई
पनवारी और अकोला की घटनाओं में दलितों पर हुए अत्याचार ने पूरे प्रदेश को झकझोर दिया। मीडिया में इन घटनाओं की व्यापक कवरेज और बसपा नेताओं द्वारा इसे हर मंच पर उठाए जाने से यह एक प्रतीकात्मक लड़ाई बन गई। दलित समुदाय ने पहली बार इतने बड़े स्तर पर एकजुटता दिखाई। कांशीराम और मायावती ने पनवारी कांड को दलित स्वाभिमान की लड़ाई के रूप में प्रस्तुत किया। हर रैली, हर जनसभा में इस कांड का जिक्र होता रहा। बामसेफ जैसे संगठन ने इसे जमीनी स्तर पर कैडर बेस बनाने का जरिया बनाया और बसपा ने इसे वोट बैंक में बदलने की रणनीति बनाई। पनवारी कांड से पहले आगरा और आसपास की राजनीति पर जाट नेताओं जैसे अजय सिंह, बदन सिंह का वर्चस्व था। लेकिन इस घटना के बाद चौधरी बाबूलाल जैसे नेता उभरे, जिन्होंने न सिर्फ निर्दलीय जीत हासिल की, बल्कि मंत्री और सांसद बनकर नए राजनीतिक जाट चेहरे के रूप में पहचान बनाई। पुराने नेताओं को जनता ने पूरी तरह नकार दिया।
कांग्रेस और जनता दल की विफलता
हालांकि राजीव गांधी की सक्रियता कांग्रेस को वापस मजबूत करने की कोशिश थी, लेकिन दलित समाज ने इसे ‘कागजी सहानुभूति’ माना। जनता दल ने मंडल आयोग लागू कर दलितों को जोड़ने की कोशिश की, लेकिन पिछड़ी जातियों को प्राथमिकता देने के कारण दलितों का भरोसा नहीं जीत सका। पनवारी कांड सिर्फ एक सामाजिक अन्याय की कहानी नहीं थी, वह उस चिंगारी की तरह थी जिसने दलित राजनीति को एकजुटता, पहचान और ताकत दी। कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में बसपा ने इस दर्द को आंदोलन में बदला और एक वैकल्पिक दलित शक्ति बनकर उभरी। उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों की यह गोलबंदी आज भी एक निर्णायक फैक्टर बनी हुई है।