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जब पहली बार कोर्ट में पेश हुआ था कोई पीएम, जज के सामने दी गई थी कुर्सी, फैसले ने मोड़ दिया था देश का इतिहास

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी का लोकसभा चुनाव शून्य घोषित किया था। साथ ही, उनके चुनाव लड़ने पर 6 साल के लिए प्रतिबंध लगाया था। जिसके बाद पीएम गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया।

नई दिल्लीJun 12, 2025 / 01:02 pm

Pushpankar Piyush

Indira Gandhi

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12 जून 1975 का दिन भारत के इतिहास के लिए बड़ा दिन साबित हुआ। सुबह 10 बजे इलाहाबाद हाईकोर्ट के रूम नंबर 24 में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा अपनी सीट पर बैठे। उन्होंने रायबरेली संसदीय सीट से प्रत्याशी राज नारायण की याचिका पर सुनवाई के बाद कहा कि वादी की याचिका स्वीकार की जाती है। इंदिरा गांधी (तत्कालीन प्रधानमंत्री) का लोकसभा के लिए चुनाव शून्य घोषित किया जाता है। इंदिरा गांधी के चुनाव लड़ने पर 6 साल के लिए प्रतिबंध लगाया जाता है।

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पहली बार किसी पीएम का चुनाव रद्द

स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार किसी प्रधानमंत्री का चुनाव रद्द किया गया था। अदालत के इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी ने संवैधानिक प्रावधान का इस्तेमाल करते हुए संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया। इसके तहत देश की जनता से मौलिक अधिकार छीन लिए गए। विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया। प्रेस की आजादी भी समाप्त कर दी गई।

कठघरे में बिठा कर इंदिरा गांधी से दो घंटे हुआ था सवाल-जवाब

फैसले से पहले, 18 व 19 मार्च को बतौर पीएम इंदिरा गांधी भी कोर्ट में हाजिर हुई थीं। इसके लिए वह 17 मार्च 1975 को इलाहाबाद पहुँच गई थीं। उनके वकील एस सी खरे ने न्यायमूर्ति सिन्हा से आग्रह किया था कि प्रधानमंत्री का बयान लेने के लिए एक आयोग गठित कर दिया जाए। जस्टिस सिन्हा ने उनकी मांग खारिज कर दी थी। तब पहली बार किसी पीएम को कोर्ट में पेश होना पड़ा था।
18 मार्च, 1975 को सुबह 9 बजे से ही कोर्ट परिसर में भीड़ लगने लगी। कोर्ट परिसर में विपक्षी नेता मधु लिमये, श्याम नंदन मिश्रा (जो बाद में विदेश मंत्री बने) और रवि राय (जो बाद में लोकसभा अध्यक्ष बने), इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी और बहू सोनिया गांधी भी पहुंची थीं।

इंदिरा को उपलब्ध कराई गई कुर्सी

इंदिरा गांधी को पेशी के दौरान कोर्टरूम में बैठने के लिए कुर्सी उपलब्ध कराई गई। ऊंचे चबूतरे पर उनकी कुर्सी रखी गई, ताकि जज और पीएम आमने-सामने रह सकें।

जस्टिस सिन्हा को करना पड़ा कई दबावों का सामना

प्रशांत भूषण ने अपनी कि किताब द केस दैट शुक इंडिया: द वर्डिक्ट दैट लेड टू द इमरजेंसी में मामले का ब्यौरा दिया है। प्रशांत ने लिखा उनके पिता शांति भूषण (बाद में केंद्रीय कानून मंत्री भी बने) समाजवादी नेता राजनारायण के वकील थे। प्रशांत ने अपने पिता के हवाले से किताब में बताया कि जस्टिस सिन्हा को कई दवाबों का सामना करना पड़ा था।

फैसले के ब्यौरे जानने के लिए गठित की गई थी टास्क फोर्स

प्रशांत भूषण ने अपनी किताब में लिखा कि फैसले का ब्यौरा जानने के लिए CID की एक विशेष टास्क फोर्स को लगाया गया था। टास्क फोर्स से जुड़े अधिकारियों ने जस्टिस सिन्हा के स्टेनो मन्ना लाल के घर का दो बार दौरा किया। वहीं, जस्टिस सिन्हा ने खुद को घर में बंद कर लिया था। लोगों से कहा गया कि वह अपने बड़े भाई से मिलने के लिए उज्जैन गए हैं। फैसले से एक रात पहले जस्टिस सिन्हा ने अपने स्टेनो मन्ना लाल के लिए हाईकोर्ट बिल्डिंग से सटे बंगला नंबर 10 में रहने की व्यवस्था भी की थी।

कोर्ट रूम में पसर गया था सन्नाटा

इलाहाबाद HC से सेवानिवृत्त न्यायाधीश शंभूनाथ ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के साथ बातचीत में उस दिन को याद किया है। उन्होंने कहा कि 12 जून 1975 को बतौर वकील मैं कोर्ट में उपस्थित था। जस्टिस सिन्हा के फैसले के बाद कुछ क्षणों के लिए कोर्ट रूम के भीतर सन्नाटा पसर गया। इंदिरा गांधी के वकील खरे के भतीजे और उनके भाई वी एन खरे (जो बाद में CJI बने) ने हाथ से लिखकर एक स्थगन आवेदन दिया। आवेदन को स्वीकार करते हुए जिस्टस सिन्हा ने अपने फैसले पर 20 दिनों के लिए स्थगन आदेश दे दिया। इस बीच काँग्रेस को नया नेता (प्रधानमंत्री) चुन लेना था। पार्टी ने फिर से इंदिरा गांधी को ही नेता चुन लिया और अदालत के फैसले के खिलाफ कोर्ट में याचिका भी दी।
अदालती आदेश के मुताबिक इंदिरा गांधी को सशर्त अन्तरिम प्रधानमंत्री रहने की अस्थाई मोहलत मिली। उन्हें संसद की कार्यवाही में भाग लेने या मतदान करने आदि की इजाजत नहीं दी गई। सर्वोच्च अदालत का अंतिम फैसला आने और मोहलत की मियाद खत्म होने से पहले ही इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी।
बता दें कि 1971 के लोकसभा चुनाव में संसोपा (संयुक्त सोशलिस्टि पार्टी) के नेता राज नारायण रायबरेली सीट से तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनावी मैदान में थे और चुनाव हार गए थे। उन्होंने इंदिरा गांधी पर चुनावी धांधली और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाया था। साथ ही, चुनाव परिणाम को चुनौती देते हुए इलाहाबाद HC में चुनौती दी थी।

HC के अंतिम ब्रिटिश जस्टिस की कोर्ट में केस हुआ था सूचीबद्ध

राज नारायण वर्सेज इंदिरा गांधी का मामला सबसे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के अंतिम ब्रिटिश न्यायाधीश विलियम ब्रूम के समक्ष सूचीबद्ध हुआ था, लेकिन ब्रूम दिसंबर 1971 में सेवानिवृत्त हो गए। इसके बाद राज नारायण की याचिका दो अलग-अलग बेंचों (जस्टिस बी एन लोकुर और जस्टिस के एन श्रीवास्तव) के पास गई, लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति के कारण याचिका को 1975 की शुरुआत में जस्टिस सिन्हा को सौंप दिया गया था।

इन लोगों के बयान हुए थे कोर्ट में दर्ज

मामले की सुनावई के दौरान 12 फरवरी 1975 को कोर्ट रूम में कई हाई प्रोफाईल लोगों की गवाही शुरू हुई। जिसमें तत्कालीन योजना आयोग के उपाध्यक्ष पी एन हक्सर, जो इंदिरा गांधी की ओर से पेश हुए थे। लालकृष्ण आडवाणी (तत्कालीन भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष), कर्पूरी ठाकुर (बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री) और एस निजलिंगप्पा (कांग्रेस-ओ के अध्यक्ष) ने राज नारायण की ओर से गवाही दी।

कोर्ट में इन वकीलों ने रखा था पक्ष

इंदिरा गांधी की ओर से एस सी खरे ने दलीलें दीं, जबकि राज नारायण की ओर से शांति भूषण और आर सी श्रीवास्तव वकील थे। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन महाधिवक्ता एस एन कक्कड़ राज्य सरकार की ओर से और भारत के अटॉर्नी जनरल नीरेन डे भारत सरकार की ओर से पेश हुए।

फोन पर मिली थी आडवाणी को आपातकाल की सूचना

25 जून 1975 को जब देश में आपातकाल लागू हुआ तब उस समय विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी बंगलोर में थे। वह कांग्रेस व अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ सदन की संयुक्त सदन की चयन समिति में भाग लेने के पहुंचे थे। फोन पर आडवाणी को बताया गया कि पीएम गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया है। जेपी समेत तमाम बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो चुकी है। इसके बाद आडवाणी अटल बिहारी के पास पहुंचे। उन्होंने सारा मामला बताया। दोनों ने तय किया कि वह गिरफ्तारी देंगे। फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

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