आखिर क्या है यह मामला ?
पूर्व जज झिमोमी पर आरोप है कि दीमापुर में प्रधान जिला न्यायाधीश रहते हुए उन्होंने 28 अलग-अलग आपराधिक मामलों से जुड़ी जमानत राशि-कुल ₹14.35 लाख-राज्य खजाने में जमा नहीं कराई। यह आरोप एक शिकायत के आधार पर दर्ज एफआईआर में लगाया गया है, जो दीमापुर के मौजूदा न्यायाधीश के एक पत्र पर आधारित है।
जमानत की प्रक्रिया पर उठाए थे सवाल
झिमोमी के वकील सिद्धार्थ बोरगोहेन ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि नगालैंड की न्यायिक प्रणाली में जमानत राशि को कोषागार में नहीं, बल्कि एक ‘विशेष अदालत खाते’ में जमा किया जाता है, जो कि देश के अन्य राज्यों से एकदम अलग प्रणाली है। वकील ने यह भी कहा कि झिमोमी ने पहले ही, 2013 में कोहिमा में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट रहते हुए, इस अनियमित प्रणाली पर सवाल उठाते हुए हाईकोर्ट को पत्र भेजा था।
सुप्रीम कोर्ट की सख्ती: “पैसा गया कहां ?”
पीठ ने इस बात पर हैरानी जताई कि अदालत में जमानत राशि जमा करने की जो प्रक्रिया है, वह रिकॉर्ड में क्यों नहीं है।
“हमें यह दिखाइए कि यह राशि जमा हुई,” अदालत ने कहा। बोरगोहेन ने तर्क दिया कि स्थानांतरण के समय राशि के जमा होने के प्रमाण दिए गए थे, लेकिन कोर्ट ने इससे अधिक स्पष्ट सुबूत मांगे हैं।
न्यायपालिका बनाम प्रशासन: अनुशासनात्मक कार्रवाई भी सवालों में
झिमोमी को बाद में मोन जिले में स्थानांतरित कर दिया गया और फिर निलंबित कर दिया गया। उन्हें मार्च 2025 में अनिवार्य सेवानिवृत्त कर दिया गया, जिसका उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए ‘प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन’ बताया।उन्होंने यह भी कहा कि अनुशासनात्मक जांच उनके सेवा से हटाए जाने के बाद शुरू की गई, जो प्रक्रिया के अनुरूप नहीं थी।
हाईकोर्ट ने जमानत याचिका खारिज की थी
गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने 29 मई को झिमोमी की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने अब उन्हें राहत देते हुए निर्देश दिया कि वे जांच में सहयोग करते रहें और हाईकोर्ट की अंतिम सुनवाई तक गिरफ्तारी से संरक्षित रहेंगे।
कानूनी बहस: क्या जज के खिलाफ ऐसे मुकदमे चल सकते हैं ?
झिमोमी ने के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) का हवाला देते हुए तर्क दिया कि किसी जज के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश की अनुमति जरूरी नहीं है।
नागालैंड की न्यायिक प्रणाली की संरचनात्मक खामियां उजागर
बहरहाल इस मामले ने नागालैंड की न्यायिक प्रणाली की संरचनात्मक खामियों को उजागर किया है, साथ ही यह सवाल भी खड़ा किया है कि न्यायपालिका के भीतर पारदर्शिता और जवाबदेही को कैसे मजबूत किया जाए।