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नई दिल्ली

आपातकाल: सत्ता के लिए संविधान का संहार

भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ल इस लेख में बता रहे हैं कि इंदिरा गांधी की सरकार में आपातकाल के दौरान संविधान की आत्मा कुचल कर रख दी गई थी और वर्तमान में भाजपा सरकार उसी संविधान की रक्षा और सुरक्षा के लिए कैसे प्रतिबद्ध है।

नई दिल्लीJun 24, 2025 / 04:45 pm

Navneet Mishra

प्रेम शुक्ल

राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा

25 जून 1975 का वह काला दिन जब मां भारती की आत्मा पर स्वार्थ की सत्ता का काला साया पड़ा था। जब इंदिरा गांधी के आपातकाल ने देश के संविधान को बंधक बनाया था, जब लोकतंत्र को जंजीरों ने जकड़ रखा था। तब देश में लोकतंत्र का सूरज ढल गया था और देश अघोषित तानाशाही के साये में कैद हो गया था। 21 महीनों तक चली आपातकाल की अवधि में विपक्ष की आवाज दबा दी गई थी, अखबारों और प्रेस पर ताले जड़ दिए गए, न्यायपालिका को नजरअंदाज किया गया, और जनता के अधिकारों को कुचल दिया गया। यह आपातकाल सिर्फ एक राजनीतिक निर्णय नहीं था, यह मां भारती की आत्मा और संविधान पर हमला था।इन दिनों संविधान मौन हो गया था और मैं सत्ता हूं की आवाज हर जगह सुनाई देने लगी थी। यूं कहें तो सत्ता की तानाशाही के आगे संविधान का संहार किया गया था। आपातकाल के इस काले इतिहास को देखते हुए श्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने 11 जुलाई 2024 को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला लिया लेकिन कांग्रेस आपातकाल के बचाव में इसके विरोध में आ गई।

सत्ता के लिए संविधान के मूल्यों की दी बलि

आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी अपनी कुर्सी बचाने के लिए संविधान के मूल्यों की खुलेआम बलि दे दी थी। देश का संविधान जो जनता की आत्मा है और आत्मा को कभी गिरवी नहीं रखा जा सकता। मगर अनुच्छेद 19 जो अभिव्यक्ति की आजादी का मूल आधार माना जाता है उसे छिन्न-भिन्न कर दिया गया था। नागरिकों के बोलने की आजादी, विरोध प्रदर्शन का अधिकार और न्यायपालिका में अपील करने का हक छीन लिया गया था।
संविधान का दुरुपयोग कर आंतरिक अशांति के नाम पर इंदिरा गांधी ने अनुच्छेद 352 का इस्तेमाल किया जो कि किसी बाहरी हमले या युद्ध के लिए किया जाता है। हाथ से खिसकती कुर्सी देख इंदिरा गांधी इस हद तक गिर गई थी जिसे देखकर यह कहा जा सकता है कि नियम टूटे तो टूटे पर सिंहासन न छूटे। सत्ता की चमक ने इंदिरा गांधी की आंखों की रोशनी को ऐसा कर दिया था कि उन्हें उसके आगे कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया था। कुर्सी की लालसा में इंदिरा गांधी की तानाशाही इतनी बढ़ गई थी कि उन्होंने विपक्ष के सारे नेताओं की गिरफ्तारी का सिलसिला 25 जून की रात से ही शुरू कर दिया और सैकड़ों नेताओं को जेल में डलवा दिया। ये कोई राजनीतिक चाल नहीं बल्कि यह एक डर और घबराहट थी। इंदिरा गांधी जानती थी कि विपक्ष मजबूत हो रहा है। गुजरात और बिहार में इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन उग्र हो चुके थे। जनता के सामने जब सच्चाई सामने आने लगी तो इंदिरा गांधी सबको जेल में भरने लगी। आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की वो काली रात थी जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

आपातकाल की तलवार से न्यायपालिका पर प्रहार

इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही उनका न्यायपालिका के साथ टकराव शुरू हो गया था। आपातकाल की तलवार निकालने के बाद सबसे पहले इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका पर प्रहार किया। वर्ष 1976 में 42वां संशोधन लाकर न्यायपालिका को कमजोर करने का काम किया, जिसे ‘मिनी संविधान’ कहा गया। आपातकाल के बाद 38वां संशोधन कर न्यायपालिका से आपातकाल की समीक्षा करने का अधिकार छीन लिया ताकि उनकी सच्चाई जनता के सामने न आए। अपनी कमियां और गलतियां छिपाने में माहिर इंदिरा गांधी ने साम-दाम-दंड-भेद सब कुछ अपनाया। जब इन सबको लेकर विवाद बढ़ा तो इंदिरा गांधी ने 39वां संशोधन भी कर दिया, जिसका मकसद प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाए रखना था। इंदिरा गांधी ने डर और स्वार्थ को न्यायपालिका में संशोधन के नाम पर उनका शोषण करने की पूरी भूमिका निभाई है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय में अपनी सत्ता को संरक्षित करने के लिए जनता को यह दिखाया कि ‘मैं ही संविधान हूं’।

आपातकाल में अधिकार भी नहीं रहे ‘आजाद’, उनकी भी हुई ‘बंदी’

आपातकाल में जनता को जीवन के अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया था। देश के नागरिकों को जीवन के मूलभूत अधिकार के लिए दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर होना पड़ता था। देश में इससे अधिक क्रूरता की स्थिति और क्या हो सकती थी। एक तरफ इंदिरा गांधी संविधान का गला घोंटकर पहले ही स्वतंत्रता के अधिकार नागरिकों से छीन चुकी थी। दूसरी तरफ उनके बेटे द्वारा 1976 में आपातकाल के दौरान जबरन लाखों गरीब पुरुषों की नसबंदी कराकर उनके अधिकारों का हनन कर उनकी आजादी पर पाबंदी लगा दिए गए थे। जबकि संविधान में नियम है कि अभिव्यक्ति की आजादी का, लेकिन यहां न तो देश के नागरिक कुछ बोल पा रहे थे और न ही वह
विरोध दर्ज करा पा रहे थे। इस वजह से पुरुषों की बिना मर्जी के उन्हें उठाकर ले जाना या फिर उनकी गरीबी का फायदा उठाकर उन्हें लालच देकर नसबंदी करा देना। हद तो तब और हो गई जब पुलिस प्रशासन को भी यह काम सौंप दिया गया था, ताकि जो पुरुष इसके लिए तैयार न हो उनके लिए बल का प्रयोग किया जा सके। आपातकाल के दौरान संविधान के अधिकारों को सूली पर चढ़ाकर नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन किया गया था। बाद में इसे जनसंख्या नियंत्रण अभियान का नाम दे दिया गया, जो कि भारत का सबसे भयावह नसबंदी अभियान रहा। यह अभियान नहीं बल्कि पुरुषों के शरीर और उनकी आत्मा पर किया गया एक क्रूरता भरा प्रयोग था। इससे पता चलता है कि इंदिरा गांधी और उनके बेटे ने पहले नागरिकों की आजादी का कत्ल किया फिर पुरुषों के अधिकारों को भी पैरों तले कुचल कर उनका शोषण किया था।
आपातकाल के उन दिनों को याद करके आज भी मन धधक उठता है। संविधान को ताक पर रखकर अपनी मनमर्जी करने वाली इंदिरा गांधी इमरजेंसी की घोषणा करने से पहले जरा भी विचार करती तो शायद यह काला इतिहास पन्नों में दर्ज न होता। उनकी सत्ता की लालसा ने सिर्फ संविधान को बंधक नहीं बनाया बल्कि जनता की स्वतंत्रता तक छीन ली थी। संविधान को बचाना हमारी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है। भाजपा सरकार संविधान की रक्षा और सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।

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