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संविधान की मूल भावना के विपरीत फैसले चिंताजनक

हाल ही राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय से 14 मुद्दों पर परामर्शी राय मांगी है। यह राय मुख्य रूप से राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लेने से संबंधित है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 8 अप्रैल, 2025 के फैसले में तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में राष्ट्रपति और राज्यपाल को किसी भी विधेयक को लंबित रखने की अधिकतम समय-सीमा निर्धारित की थी। इस मुद्दे पर विभिन्‍न पक्ष सामने आए हैं…

जयपुरMay 18, 2025 / 10:10 pm

Sanjeev Mathur

आनंद मिश्रा
(सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता)

राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए 13 मई को 14 प्रश्न पूछे हैं जो उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ के तमिलनाडु बनाम राज्यपाल के मामले सुनाए गए फैसले से संबंधित है, जिसमें न्यायालय ने राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को तीन महीने के भीतर सदन द्वारा प्रस्तुत विधेयक पर निर्णय देने की समय सीमा निर्धारित कर दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यदि तय समय सीमा के भीतर निर्णय नहीं लिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा पारित मान लिया जाएगा। इस निर्णय द्वारा उच्चतम न्यायालय ने संविधान द्वारा प्रदत्त पारित विधेयक की जगह संविधान के विरुद्ध एक मानित विधेयक की अवधारणा को जन्म दिया। दु:ख की बात यह है कि संविधान की मूल अवधारणा के विरुद्ध पारित इस निर्णय को संविधान के संरक्षक द्वारा ही पारित किया गया है। हमने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अपनाया। तब से लेकर अब तक इसमें हम 106 संशोधन भी कर चुके हैं। इसीलिए संविधान को मात्र एक पुस्तक नहीं परंतु एक जीवित विधायिका माना जाता है।
हमारे पूर्वजों ने संविधान के निर्माण के दौरान विशेष रूप से इसे कई महत्वपूर्ण अनुच्छेद और उपनियम सम्मिलित किए थे, जिनसे इन तीनों शाखाओं की स्वतंत्रता बनी रहे और ये तीनों लोकतंत्र का कुशलतापूर्वक संचालन कर सकें। इसके उपरांत भी यदि हमने संविधान के अनुच्छेद 200 में कोई संशोधन नहीं किया तो इसका अवश्य ही कोई कारण रहा होगा। संविधान के सभी संशोधन एक ही राजनीतिक दल की सरकार ने नहीं किया है, अत: संविधान की व्यवस्था और अव्यवस्था को राजनीतिक नहीं परंतु सामाजिक, नैतिक एवं राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखना चाहिए। गणतंत्र में गण (जनता) ही सर्वोपरि है। वो अपनी विधायिका द्वारा जो भी निर्णय ले, वह बाकी सभी संस्थानों को मानना ही होगा फिर चाहे वह संस्था कितनी ही उच्च क्यों ना हो। अतएव, जिस संशोधन को संसद ने नहीं किया उसे करने के लिए न्यायालय सक्षम नहीं है। यदि ऐसा होता है तो इसे संसदीय कार्य क्षेत्र में अतिचार ही माना जाएगा।
संविधान अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार मिलता है कि वह किसी अधिनियम की अनुपस्थिति से उत्पन्न अव्यवस्था को अपने आदेश से विधान बनाकर पूर्ण कर दे परंतु यह व्यवस्था तभी तक है जब तक कि विधायिका इस विषय में अधिनियम ना बनाए और यह अधिकार तभी तक है जब तक कि इस संदर्भ में कोई अधिनियम ना हो। जहां विधान है वहां अनुच्छेद 142 का प्रयोग नहीं हो सकता, जब तक की उस अधिनियम को असंवैधानिक ना घोषित कर दिया जाए। सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश अनुच्छेद 200 के विरुद्ध होने के कारण सही नहीं कहा जा सकता। संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल किसी भी विधेयक को पारित या खारिज कर सकता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में, राज्यपाल के पास विधेयक को राष्ट्रपति की सम्मति लिए संरक्षित करने का अधिकार भी होता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत राज्यपाल का कर्तव्य केवल विधेयकों को पारित करना नहीं बल्कि एक उत्तरदायित्व है जो संविधान प्रदान करता है।
राज्यपाल का किसी भी विधेयक पर विचार-विमर्श एक सामान्य प्रशासनिक कार्य नहीं अपितु अनुच्छेद 159 के तहत अपनी शपथ के अनुसार संविधान, विधि और लोक हित की रक्षा करने का उत्तरदायित्व है। इसे मात्र एक प्रशासनिक विवेकता का नाम देना इस स्थिति में अनुचित से कम नहीं है। राज्यपाल की भूमिका केवल एक प्रोटोकॉल अधिकारी की नहीं, बल्कि एक संवैधानिक अभिभावक की भी है। जब कोई विधेयक उनके समक्ष प्रस्तुत होता है, तो वह न केवल कार्यपालिका के नुमाइंदे होते हैं, बल्कि संविधान की आत्मा के संरक्षक भी होते हैं। इसलिए उनके निर्णय को मात्र औपचारिकता में समेटना संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है। संविधान में सभी संस्थाओं को अधिकार भी दिए गए हैं और वह उन अधिकारों का दुरुपयोग ना कर सकें इसके लिए उन पर वैधानिक प्रतिबंध भी लगाए गए हैं। सबके अपने दायित्व व अधिकार हैं। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका का हस्तक्षेप स्वागतयोग्य नहीं कहा जा सकता।
राष्ट्रपति या राज्यपाल का यह अधिकार जनता के हित में रखा गया है ताकि कोई राजनीतिक दल केवल बहुमत के आधार पर मनमानी ना कर सके। उदाहरण के तौर पर 1986 में तत्कालीन सरकार पोस्ट ऑफिस संशोधन विधेयक लाई जिसके अनुसार सरकार किसी भी पार्सल या पत्र को पढ़ सकती थी, जब्त कर सकती थी या नष्ट कर सकती थी। यह जनता की स्वतंत्रता पर सीधा आघात था। बहुमत की सरकार के चलते इसे संसद रोक नहीं सकती थी। तब तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने इसे अपने पास ही रोक लिया था और पास नहीं होने दिया और समय के साथ यह विधेयक समाप्त हो गया। अत: व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो कुछ विधेयक ऐसे हो सकते हैं जो संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करते हों और ऐसी स्थिति में राज्यपाल का कर्तव्य बनता है कि वह संविधान का संरक्षण करें। यह अपेक्षा करना कि राज्यपाल मात्र एक औपचारिक मुहर सम कार्य करे, ये संविधान की भावना के प्रतिकूल होगा।
सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश और उसमें प्रयुक्त दृष्टिकोण राज्यपाल के संवैधानिक कर्तव्यों को एक महज प्रशासनिक मुहर में बदलने का प्रयास है जो संविधान के विरुद्ध है। यह भी ध्यान रखना आवश्यक है की राष्ट्रपति देश की किसी भी संस्था के अधीन नहीं है अपितु देश की सभी संस्थाएं राष्ट्रपति के अधीन हैं, ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के यह आदेश कहीं ना कहीं राष्ट्रपति की संप्रभुता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। न्यायालय ने अनुच्छेद 200 में विधेयक सहमति के लिए कोई समय सीमा के अभाव में तीन माह की समय सीमा स्वयं ही निर्धारित की है। इसके लिए, माननीय न्यायाधीशों ने संविधान निर्माण के समय संविधान सभा की चर्चाओं का अवलोकन किया है। वर्तमान के अनुच्छेद 200 से पूर्व जो मूल अनुच्छेद संविधान में शामिल किया जाना था, उसमें 6 सप्ताह की समयावधि उल्लेखित थी। न्यायालय ने समय अवधि निर्धारित करने के लिए और अनुच्छेदों का संदर्भ भी दिया है। परंतु समयावधि निर्धारित करने का निर्णय एक संसदीय और विधान संबंधी कार्य है जो कि न्यायिक क्षेत्राधिकार सेपरे है। न्यायालय किसी भी कार्य को सही या गलत ठहरा सकता है परंतु उसे किसी कार्य में, खासकर किसी संवैधानिक कार्य में बदलाव करने का अधिकार संविधान प्रदान नहीं करता है।
यदि न्यायपालिका संविधान में मौन प्रावधानों को अपनी सुविधा अनुसार भरने लगे, तो यह न्यायिक सक्रियता के खतरनाक रूप में परिवर्तित हो सकता है। इसके अतिरिक्त, संविधान सभा की जिन चर्चाओं को संविधान में उस समय सम्मिलित नहीं किया गया उन्हें अब न्यायपालिका द्वारा संविधान में सम्मिलित करना अत्यंत अनुचित एवं संविधान की आत्मा के विरुद्ध है। इसके अतिरिक्त, यह निर्णय एक द्विसदस्यीय खंडपीठ ने पारित किया है जो स्वयं संविधान के नियमों के विरुद्ध है। अनुच्छेद 145 खंड 3 के अनुसार, संविधान की व्याख्या से संबंधित या अनुच्छेद 143 के तहत किसी भी संदर्भ की सुनवाई के लिए, कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ होनी चाहिए, जो कानून के एक महत्वपूर्ण प्रश्न से संबंधित मामले को तय करने के लिए बैठती है। इस तरह की पीठ को संवैधानिक पीठ कहा जाता है, परंतु इस निर्णय को पारित करने के लिए मात्र 2 न्यायाधीशों की पीठ ही थी। यह संविधान में सम्मिलित नियम व संवैधानिक नैतिकता का घोर उल्लंघन है। अतएव, तमिलनाडु बनाम राज्यपाल मामले का निर्णय भारतीय संविधान के संतुलन और शक्तियों के बंटवारे की मूल भावना के विपरीत है।
हमारे संविधान में अनुच्छेद 200 राज्यपाल को किसी विधेयक को पास करने, रोकने या राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार देता है। यह मात्र एक औपचारिक कार्य नहीं है, बल्कि एक संवैधानिक जिम्मेदारी है। लेकिन इस निर्णय में यह मान लिया गया कि राज्यपाल के पास इस मामले में कोई खास विवेक नहीं है- जो संविधान की आत्मा के साथ अन्याय है। कुल मिलाकर, यह निर्णय न्यायसंगत नहीं है और यह कहीं न कहीं संविधान की उस बारीक और खूबसूरत बनावट में दरार डालने का काम कर सकता है, जो कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए रची गई थी। भविष्य में इससे संघीय ढांचे और संवैधानिक मर्यादाओं पर असर पडऩे की आशंका बनी रहेगी। इसलिए यह आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायालय अब राष्ट्रपति के संदर्भित प्रश्नों के उत्तर में इस संवैधानिक त्रुटि को सुधारेगा और इस संवैधानिक संकट तो समाप्त करेगा।
(यह लेखक के अपने विचार हैं) 

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