अग्नि में जब अशनाया/मुमुक्षा धर्म जन्म ले लेता है, उस अग्नि को ही रुद्र कहते हैं। एक-एक बीजांकुर में यह प्राणाग्नि (केन्द्रस्थ) अशनाया द्वारा बाहर से अपने लिए अन्न लाती है। रुद्राग्नि शान्त हो जाती है। जागरूक रुद्र अग्नि को इसके न्योक-सखा सोम ही उपशान्त करते हैं। इसी यज्ञ से मानव की स्वरूप रक्षा होती है। प्रक्रिया बार-बार होने से सब प्राणात्मक पिण्ड अभिवृद्धि प्राप्त करते हैं। यही अग्नि चयन है फिर भूख-फिर अन्न।
यज्ञाहुति रूप सोमान्न को दधि, घृत, मधु, अमृत इन चार भागों में बांटा है। इन चार रसों के कारण ही अन्न मानवीय रुद्राग्नि का अन्न होता है। कच्चा अन्न मानव का अन्न नहीं बनता। दूधिया अन्न जब खेत में पकने लगता है- दूध जब दही बन जाता है, जिसमें चारों की मात्राएं विद्यमान रहती हैं, वही पका धान अन्न बनता है।
दधि भाग पार्थिव द्रव्य है, घृत आंतरिक्ष्य है। मधु का चान्द्र नाड़ी के द्वारा भरणी नक्षत्र में वर्षण होता है। सूर्य जब भरणी नक्षत्र पर आते हैं, तब प्राणात्मिका मधुमात्रा का वर्षण होता है। यही मधुमास है। अमृत भाग प्राणरूप रस है। यह परमेष्ठी लोक से आता है। इसी सोमरस से मन का पोषण होता है। जिस अन्न से यह अमृत भाग निकल जाता है वह रुचिपूर्ण नहीं रहता। यातयाम (एक पहर से ज्यादा पुराना), बासी, ठण्डा अन्न इस सोममात्रा से विहीन हो जाता है। वायव्य इन्द्र इसका पान कर जाते हैं।
सोम गोमाता के दूध में ही अपने मूल स्वरूप में रहता है। गौ की मूल प्रतिष्ठा गौ प्राण है। इसके साथ रुद्र-वसु-आदित्य की प्राण शक्तियों का घनिष्ठ सबन्ध है। अत: इस दूध में जीवनीय रसात्मक पारमेष्ठ्य अमृत सोम प्रभूत मात्रा में रहता है। इसे ‘अदिति’ एवं गौ तत्त्व कहा जाता है। यह आराध्य पशु है।
स्वादुपाकरसं स्निग्धमोजस्यं धातुवर्धनम्। प्राय: पय: अत्र गव्यं तु जीवनीयं रसायनम्।। (अष्टांग हृदय) इस गौ पशु को रुद्रों की माता, वसुओं की कन्या, आदित्यों की बहन कहा है। अदिति रूपा है। यह अमृत सोम का केन्द्र है। ज्ञान और कर्म दो ही मानव स्वरूप बनते हैं। ब्राह्मण और गौ इनके प्रतीक हैं। इनके साथ ही राष्ट्र की ज्ञानशक्ति एवं प्राणशक्ति जुड़ी है। इनके ह्रास के साथ आत्मा-शरीर-प्रकृति का ह्रास हो जाता है।
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि:। प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट ॥ (ऋग्वेद 8.101.15) शंकर के संगीत से पिघलकर शेषशायी विष्णु गंगारूप में अवतरित हुए। इस पौराणिक आयान में अध्यात्म, अधिदेव, अधिभूत, अधिनक्षत्र चारों संस्थाएं समन्वित हैं। बृह्मणस्पति-सोम नामक पवित्रतम गांगेय सोम चौथे अमृत-तत्त्व पर ही अन्न की चतुर्विध व्याया की गई है।
‘‘अन्नमयं हि सौय मन:’’-यही बन्ध/मोक्ष का कारण है। अन्नदोष से यज्ञ स्वरूप दूषित हो जाता है। इससे मानव के अव्यक्त-महद् आदि पर्व विश्व के स्वयंभू-परमेष्ठी आदि पर्वों के सहज अनुग्रह से वंचित रह जाते हैं। परिणाम स्वरूप मानव प्रकृतिसिद्ध धर्मपथ का अतिक्रमण कर अपना सबकुछ नष्ट कर लेता है।
अन्न पंचपूर्वा युक्त कण है जिसके केन्द्र में ब्रह्म है। ब्रह्म सोम है-ऋत है-निराकार है-अकर्ता है। अग्नि के सखा भाव से सत्य रूप लेता है। यही विवर्त है। हर विवर्त में सपूर्ण सृष्टि रहती है। अव्यय केन्द्र पिता है, परिधि माता है। मध्य में यजु: पुरुष गति करता है। अर्थात् पिता ऋक् है, माता साम है। पिता सूक्ष्म हृदय में प्राणरूप है।
हृदय में पिता, शरीर माता, हृदय में ईश्वर, हृदय में पत्नी। शक्तिरूपेण। देह प्रकृति-क्रियारूप है। माया ही माता है-शरीर का निर्माण भी माता ही कर रही है। स्त्री-पुरुष दोनों ही शरीर माता के गर्भ में ही, पंच महाभूतों से चिति रूप से निर्मित होते हैं। पुरुष हृदय केन्द्र में ब्रह्म भी, ब्रह्मा भी है और शुक्र के रूप में जीवाता सपूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। पति-पत्नी की कामना रूप सूक्ष्म प्राण (कारण शरीर-ईश्वर सहित) से सन्तान का हृदय बनते हैं। यही अग्नि (ब्रह्मा), आप (विष्णु), वाक् (इन्द्र), शुक्र सन्तान के कारण एवं सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं। शरीर में व्याप्त शुक्र ही वाक् शुक्र है। अन्न के माध्यम से स्वयंभू-परमेष्ठी-सूर्य के अंश ही मानव शरीर (सृष्टि मात्र) में पहुंचते हैं तथा ‘तदेव शुक्रम्’ रूप में ब्रह्म का शुक्र बनते हैं। गॉड पार्टिकल का स्थूल रूप है। हृदय प्राण या देवों का लोक है। देवासुर संग्राम का स्थल भी है।
अन्न के साथ आया ब्रह्म बीज शुक्र रूप में शरीर में व्याप्त है। स्त्री देह के माध्यम से काम भाव पुरुष देह में आहुत होता है। पुरुष देह में व्याप्त शुक्र को शोणिताग्नि आकर्षित करता है। माता-पिता के अंश के साथ ही शुक्र अधोगति करता हुआ शोणित में आहुत होने स्त्री शरीर में प्रवेश कर जाता है। यहां से आगे शक्तिरूप, प्रकृति बनकर सन्तान की देह का निर्माण करती है। चिति रूप देह में जीवात्मा ही चितेनिधेय बन जाता है- कर्ता नहीं होता।
सारा सृष्टि प्रपंच शक्ति-प्रकृति का है। शक्ति प्राण रूप हृदय में कार्य करती है। क्षर पुरुष ब्रह्मशुक्र है। पांचों कलाएं ब्रह्म ही कहलाती हैं। अक्षर की पांचों कलाएं—ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र-अग्नि-सोम ही क्षर की कलाएं, क्रमश: प्राण, आप्-वाक्-अन्नाद-अन्न बनती हैं। स्त्री-पुरुष के शरीर भी एक-दूसरे का अन्न ही होते हैं। सर्वमिदं अन्नादं, सर्वमिदं अन्नम्। अन्न ही मां है, पत्नी है, ब्रह्म है, माया है।
मां लक्ष्मी है- पृथ्वी है- अन्न है। नाभि के द्वारा गर्भनाल से स्वयं के अन्न से गर्भस्थ शिशु का पोषण करती है। चूंकि सभी तो पंच महाभूतों से निर्मित हैं, अत: शिशु देह भी उसी माटी से बनती है, 37 डिग्री सेन्टिग्रेड में पकती है, 9-10 माह तक। देह ही जीवात्मा की प्राकृतिक आकृति है। इसमें जीवात्मा अहंकृति और प्रकृति रूप रहता है। प्राण रूप, निराकार देह में। ब्रह्म-ईश्वर-जीव सभी प्राणरूप निराकार हैं। ब्रह्म आलबन, ईश्वर साक्षी (द्वासुपर्णा) तथा जीवात्मा (माता-पिता के सात पीढ़ियों के साथ) पिता के प्रारब्ध सहित माता के प्रारब्ध (कारण शरीर) से जुड़ता है। ऋत रूप आत्मा देह में सत्य रूप धारण करता है। सपूर्ण प्राण सृष्टि लक्ष्मी-सरस्वती रूप-अविनाभाव है।
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