scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड – दाम्पत्य में अपरा व परा भाव | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 19th July 2025 Sharir Hi Brahmand Apara And Para Bhaav In Marriage | Patrika News
ओपिनियन

शरीर ही ब्रह्माण्ड – दाम्पत्य में अपरा व परा भाव

अपरा स्थूल की तथा परा सूक्ष्म की प्रकृति है। विद्या भी वही है और अविद्या भी वही है। नरक का द्वार भी वही है, तो मोक्ष मार्ग की प्रेरक भी वही है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों वही है।

जयपुरJul 19, 2025 / 08:38 am

Gulab Kothari

ब्रह्म अमृत है, माया मृत्यु है। ब्रह्म ही माया को पैदा करता है। जो पैदा होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। ब्रह्म मन है, माया मन की कामना है। पैदा होती है अत: मृत्यु होगी ही। कामना अभाव सूचक है, कुछ चाहिए। अभाव ही मृत्यु है। इसी प्रकार स्त्री भी माया है, कामना है, अभाव पैदा करती है। अत: मृत्यु है। स्त्री सौम्या है, पुरुष आग्नेय है। पुरुष सत्य है, स्त्री ऋत है। ऋत अर्थात् निराकार और केन्द्र रहित है। अग्नि में आहुत भी रहना है तथा अग्नि को घेरकर भी रहती है। जैसे कि वायु। इसी से अग्नि प्रज्वलित भी रहता है तथा सोम को सत्य रूप में आने का अवसर भी प्राप्त होता है। सन्तान भी स्त्री का सत्य भाव में अवतरण है। किन्तु वह भी नश्वर ही है- पैदा होती है न!
देह पंच महाभूत से निर्मित होती है। पृथ्वी ही पांचवा महाभूत है। अन्न पैदा होता है। अन्न से ही देह का निर्माण होता है, अत: मिट्टी के घड़े जैसी है। देह का निर्माण भी मां के गर्भ में ही होता है। मां के अन्न से ही होता है। अर्थात् देह भी नश्वर है। चाहे लड़का हो या लड़की- दोनों ही स्त्रैण होते हैं। शरीर तो पुरुष का भी स्त्रैण- सौम्य रहता है। तापमान से आग्नेय तो दोनों के शरीर होते हैं। पुरुष भीतर सोम तथा स्त्री भीतर अग्नि प्रधान होती है। पुरुष भीतर मृत्यु है, सोम अधोगति प्रधान है। पुरुष को ऊर्ध्वगामी होने के लिए तपस्वी बनकर अपने सोम का प्रवाह नियंत्रित करना पड़ता है। जबकि स्त्री भीतर के संकल्प को दृढ़ करके ही ऊर्ध्वगामी होती है। अविद्या अधोमार्ग में प्रवृत्त करती है, विद्या इससे रक्षा करती है। मूल में ये दोनों भी स्त्रैण हैं, नश्वर हैं। ईशोपनिषद् में कहा है कि- ‘‘जो विद्या और अविद्या दोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृत प्राप्त कर लेता है।’’
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।। (ईशोपनिषद्, ११)

विद्या परा है, अविद्या अपरा है। अपरा में त्रिगुण भाव है, विद्या के सहारे निस्त्रैगुण भाव उत्पन्न होता है। क्या रहस्य है?
अपरा स्थूल की तथा परा सूक्ष्म की प्रकृति है। विद्या भी वही है और अविद्या भी वही है। नरक का द्वार भी वही है, तो मोक्ष मार्ग की प्रेरक भी वही है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों वही है। आरंभ में अभाव पैदा करके प्रवृत्त करती है, गृहस्थाश्रम के अन्त में निवृत्त कर देती है। यह निवृत्ति भाव ही व्यक्ति को अपरा से परा की ओर उन्मुख करता है। परा और माया के सूत्र जुडे़ रहते हैं।
पुरुष की सौम्यता औसतन निर्बल होती है। स्त्री के आग्नेय रूप में आहुत होने को आतुर रहता है। इसी के लिए कृष्ण कहते हैं—भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18.61) अविद्या में ही पकड़ है जो भ्रमित रखती है। पुरुष उस भ्रम का मूल नहीं खोज पाया। क्यों जाता है वहां, क्या लेकर आता है, कुछ स्पष्ट नहीं है। किन्तु बार-बार जाना चाहता है। अत: स्त्री के हाथ का खिलौना बनकर जीता है। तब अपरा से मुक्ति कैसी? कामना के सूत्र-रस्सी-से जैसे बछड़े को बांधकर रखती हो।
परा में प्रवेश से इस बन्धन से मुक्ति कुछ अंश तक हो जाती है। किन्तु परा का संसार पिछले जन्म के कर्मफल भोगने का क्षेत्र है। वर्तमान बन्धन से तो मुक्त हो जाता है जीव। अपरा का क्षेत्र दाम्पत्य रति का है, परा में देवरति की प्रतिष्ठा है। देवता भी सूक्ष्म (परोक्ष), स्त्री भी परोक्ष भाव में। दोनों जीवात्मा साथ-साथ होते हैं। स्त्री के मूल बीज प्राण हृदय में (पुरुष के) ही रहते हैं। साथ ही जीते हैं। दोनों अपने पिता की छह पीढ़ियों से जुड़े रहते हैं। इसी से सन्तान में पितर प्राणों की पूर्णता आती है।
स्त्री अपने सूक्ष्म भावों में जितने कार्य करती है उसका प्रभाव पुरुष हृदय तक पहुंचता है। मानव जीवन में पुरुष और प्रकृति ब्रह्म और कर्म के वाचक हैं। पुरुष आत्मा है, प्रकृति दो स्वरूपों में कार्य करती है। अर्थात् हमारा जीवन दो स्तरों पर चलता है। पुरुष- ब्रह्म- में कर्ता भाव नहीं है, अत: वह एक ही स्तर पर जीता है। प्रकृति सृष्टि का संचालन करती है, अत: वह स्थूल और सूक्ष्म दोनों धरातलों पर क्रमश: अपरा और परा रूप में कार्य करती है। मानव योनि में पुरुष स्थूल स्तर पर दिखाई देता है, सूक्ष्म गौण रहता है। जबकि प्रकृति दोनों स्तरों पर कार्य रूप में दिखाई देती रहती है। सभ्यता के इस नए दौर ने प्रकृति रूप स्त्री का भी सूक्ष्म स्तर ओझल कर दिया। दोनों, पुरुष एवं स्त्री पशुवत स्थूल शरीर को ही जी पाते हैं। न तो मां की चेतना ही सूक्ष्म को छू पाती है, न कोई गुरु ही जीवन को सूक्ष्म से जोड़ सकता है। शरीर ही उम्र भोगकर नष्ट हो जाता है, जीव बिना किसी संस्कार परिवर्तन के शरीर बदलता चला जाता है। मानव शरीरों में विभिन्न योनियां जीती हैं। सृष्टि में न तो अधिदैव रह गया है, न ही नारी का स्त्रैण भाव।
इस देश ने नारी की सूक्ष्म भूमिका को पूजा है। जीवात्मा के साथ परोक्ष भाव (देवरूपा) में उसकी दिव्यता गुरु रूप में सदा प्रतिष्ठित रही है। नारी के इस महामाया स्वरूप की भूमिका ही मानव की मुक्ति का भी कारण रही है। सूक्ष्म शरीर में अव्यय पुरुष और अक्षर पुरुष साथ रहते हैं। इसी के माध्यम से क्षर संस्था अव्यय से जुड़ सकती है। स्त्री का स्त्रैण भाव ही स्थूल में निमित्त कारण बन रहा है। कारण शरीर से प्रारब्ध का आधार लेकर स्थूल कर्मों का फलरूप संचालन करता है। इन्द्रिय मन के राग-द्वेष जनित नए कर्मों को भी कारण शरीर के संचित कर्मों में संग्रहित करता है। इसी कारण जीवात्मा की नई योनि का निर्णय होता है। सृष्टि चक्र को व्यवस्थित रखने में मानव योनि की ही भूमिका है। ब्रह्म का अंश माया द्वारा विवर्त बनता है। माया ही दैवी सम्पदा रूप में मोक्षसाक्षी बनाकर ब्रह्म से जोड़ देती है।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।

मा शुच: सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।। (गीता 16.5)

दैवी सम्पदा मुक्ति का मार्ग दिखाती है, आसुरी सम्पदा बन्धन का। हमारे शास्त्र दैवी सम्पदा से जोड़ते हैं, मोक्षमार्ग में प्रेरित करते हैं। आधुनिक शिक्षा आसुरी सम्पदा-शारीरिक भोग- की ओर धकेलती है। आत्मचिन्तन से ही दूर कर देती है। दूसरी ओर- स्त्री को भी स्त्रैण-भाव-शून्य कर देती है। माया को ब्रह्म से दूर कर देती है। शिक्षा तो माया के लिए भी ‘माया को भ्रमित करने वाली’ बन बैठी। ब्रह्म पुन: अकेला-सा जीने को बाध्य हो गया।
जीवन प्राणों का आदान-प्रदान है। मन-बुद्धि-शरीर का नहीं है। आत्मा का अर्थ है- मन-प्राण-वाक्। यह मन ईश्वरीय मन है जो जीवात्मा के मन के केन्द्र में प्रतिष्ठित रहता है। आज की विवाह पद्धति में माता-पिता की उपस्थिति भी अनिवार्य नहीं है। स्त्री-पुरुष दोनों का सूक्ष्म धरातल एक दूसरे से मुक्त रहता है। संबंध शरीर से आगे जाता ही नहीं। जीवन अपरा प्रकृति के क्षेत्र (पंच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार) से बंधा रहता है। पत्नी के पिता से प्राण पति को प्राप्त नहीं होते, अत: पत्नी का सूक्ष्म शरीर पितृ गृह से सम्बन्ध बनाए रहता है। उसका रूपान्तरण नहीं हो पाता। सांस्कृतिक-पारम्परिक दृष्टि से वह पितृ पक्ष की ही अनुगामिनी बनी रहती है।
लिव-इन-रिलेशन में केवल दैहिक भोग की प्रधानता है। स्थूल-इन्द्रिय मन तय करता है कि कब तक साथ रह सकते हैं, उम्रभर साथ रहने का बन्धन नहीं होता, न ही फिर से शादी करने (सम्बन्ध बनाने) में कोई बाधा होती है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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