ज्ञान भीतर होता है- भीतर से बाहर आता है। ब्रह्म भीतर प्रतिष्ठित रहता है। बाहर मृत्यु है। कर्म है, नश्वरता है। ज्ञान से ही कर्म की पूर्णता है। ईश्वर के लिए किया कर्म पूर्ण है, निष्काम कर्म भी पूर्ण है।
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ -जगत् का उत्पादक परमात्मा भी पूर्ण है, जगत् भी पूर्ण है। उस पूर्ण से ही यह पूर्ण निकला है। पूर्ण से पूर्ण निकलने के बाद भी शेष पूर्ण ही बचता है। जगत के विस्तार का कारण ब्रह्म ही है।
गर्भ में ज्ञान की दृढ़ता है, जीवन में भ्रामकता है। कामना है तो मन है। मन है तो चंचलता है। तब दृढ़ता कहां संभव है। अत: जब तक ज्ञान गर्भ में नहीं जायेगा, दृढ़ नहीं होगा। यही मृत्यु है। चचलं हि मन: कृष्ण! हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल है। किसी एक विषय पर टिकता ही नहीं। कृष्ण कहते हैं कि जिस प्रकार वायु, जल में नाव को गन्तव्य मार्ग से दूर कर देती है, उसी प्रकार विषयों में विचरण करती हुई इन्द्रियां मन को गन्तव्य पथ से विचलित कर देती हैं—
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाभसि।। (गीता 2.67) हमारा आत्मा मन-प्राण-वाक् की समष्टि है। यह आत्ममय मन ईश्वरीय मन है जबकि चंचल मन इन्द्रिय मन है। हमारा मन अन्न पर प्रतिष्ठित है। प्राण अप तत्त्व पर तथा वाक् तेज पर प्रतिष्ठित है। तीनों में तीनों की आहुति होती है। इस त्रिवृत्करण से तीनों में तीनों के धर्मों का समावेश हो जाता है। ये ही ज्ञान-क्रिया-अर्थ रूप में साथ रहते हैं। त्रिवृत्त मन—कारण शरीर, प्राण—सूक्ष्म शरीर एवं वाक्—क्षर (स्थूल) शरीर हैं। इनसे ही क्रमश: कामना-कर्म-आवरण (वाक्) पैदा होते हैं।
परात्पर असीम है, असीम परात्पर को सीमा में बद्ध करने वाला बल माया कहा जाता है। सीमाबद्ध परात्पर अव्यय पुरुष कहलाता है। अव्यय पुरुष की पांच कलाएं होती हैं- आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्। इनमें आनन्द, विज्ञान और मन विद्या कलाएं हैं तथा मन, प्राण और वाक् अविद्या कलाएं कहलाती हैं। मन-प्राण-वाक् में ज्ञान-क्रिया-अर्थ की प्रधानता है। प्रत्येक पदार्थ अर्थ है, उसमें क्रियारूप प्राण है, प्राण का संचालक श्वोवसीयस मन है। इन्हीं तीनों से नाम-रूप-कर्म पदार्थ के मृत्यु रूप हैं। अव्यय के विद्या-अविद्या रूप यही अस्ति-नास्ति दो विश्वभाव हैं। यही प्रजापति का अमृत-मृत्यु भाग है। दोनों का अविनाभाव है। अन्तरान्तरी भाव है। विज्ञान के अनुसार किसी भी वस्तु को पूर्णत: देखने के लिए छह भाव चाहिए। तीन अमृत-तीन मर्त्य भाव।
परात्पर अव्यय की पांच कलाएं (आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्), अक्षर की पांच कलाएं (ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि, सोम) और क्षर की पांच कलाएं (प्राण, आप्, वाक्, अन्न और अन्नाद) मिलकर षोडशी पुरुष का निर्माण करती हैं। षोडशी पुरुष का क्षरभाग ही क्रमश: विश्वसृट्* (विकार क्षर), पंचजन* (पंचीकृत विकारक्षर), पुरंजन*, पुर* रूप में परिणित होता हुआ विश्व रूप बनता है। इस प्रक्रिया को पंचीकरण कहते हैं। आधे भाग में आकाश, शेष आधे में चारों। इस प्रकार अन्य महाभूतों में भी यही क्रम रहता है। यह दर्शन शास्त्र का मत है। उपनिषद् के विज्ञान भाव में सृष्टि अव्यय के सृष्टिसाक्षी भाव से होती है। अक्षर तत्त्व मन की कामना, प्राण के तप, वाक् के श्रम से विश्व की रचना करता है। तीन ही तत्त्व—तेज, अप् और अन्न होते हैं। विश्व की तेज कला अव्यय के वाक् भाग को पुष्ट करती है, अप् कला अव्यय के प्राण भाग को प्रतिष्ठित रखती है। अन्न कला से मन का पोषण होता है।
अग्नि-सोम के, अन्न-अन्नाद के- सबन्ध मूल में अन्तर्याम-बहिर्याम कहलाते हैं। चिति सबन्ध अन्तर्याम कहलाता है। योग सबन्ध बहिर्याम होता है। यज्ञ में इनको ही स्वधा-स्वाहा कहते हैं। पानी अग्नि के कारण ही बहता है, बर्फ बनता है, फिर पानी बनता है। अग्नि जिस सबन्ध से पानी में प्रविष्ट होता है, वही अन्तर्याम सबन्ध है। अग्नि अपना ताप रूप आत्मा पानी को अर्पण कर देता है। अग्नि पानी का आत्मा बन जाता है। स्वरूप-धर्म नामक यही अन्तर्याम स्वधा कहलाता है। इसी प्रकार शरीर की वैश्वानर अग्नि में हुत अन्न सप्त धातुओं के आगे हमारा प्रज्ञान आत्मा बनता है। अन्न अग्नि में अपनी सत्ता को छोड़कर तद्रूप होता है- यही अन्तर्याम सबन्ध है।
हमारे आत्मा के दो भाग है- ईश्वर आत्मा और जीवात्मा। इसी के लिए द्वासुपर्णा कहा गया है। एक साक्षी भाव है और एक भोक्ता है। गर्भ में भी आत्मा में ये दोनों भाव प्रतिष्ठित हैं। जीवात्मा को गर्भ में संस्कारित कर मां उसे मानव बनाती है। गर्भस्थ शिशु से मां का यह संवाद सूक्ष्म धरातल पर होता है। ईश्वर पूर्णेन्द्र है। ईश्वरीय सृष्टि में शब्द और अर्थ धारा साथ में प्रवाहित होती है। अर्थधारा को स्थूल सृष्टि कहते हैं तथा शब्दधारा को सूक्ष्म सृष्टि। ईश की उपनिषत् ओम है, जीव की अहम् है। जीवात्मा ईश्वर का अवयव है। अविद्या के कारण अपूर्ण भी तभी तक अपूर्ण है, जब तक अपनी पूर्णता को नहीं समझ लेता। इस एकाक्षर ओम की पूर्णता को जानना आवश्यक है। ईश्वर और अध्यात्म भी पूर्ण हैं। पूर्ण की पूर्णता लेकर अहंभाव का परित्याग करके पूर्ण हो सकते हैं। यही पुरुष का परम पुरुषार्थ है।
–क्रमश: gulabkothari@epatrika.com विश्वसृट्: सृष्टि कामना से उत्पन्न पांच विकार प्राण-आप्-वाक्-अन्नाद व अन्न ही विश्व के उपादान बनने के कारण विश्वसृट् कहे जाते हैं।
पंचजन: विश्वसृटों का पंचीकृत रूप पंचजन है। प्रत्येक अर्द्ध में शेष चारों की आहुति होने से जो पांच विकार उत्पन्न हुए वे पंचजन हैं। यथा – प्राण १/२ + आप् १/४ + वाक् १/४ + अन्नाद १/४ अन्न १/४ = प्राण।
पुरंजन: पंचजनों की पंचीकरण प्रक्रिया में प्राण आदि प्रत्येक की २५-२५ कलाएं निर्मित हो जाती हैं, ये ही पुरंजन कहे जाते हैं। प्राण से वेद पुरंजन, आप: से लोक पुरंजन, वाक् से देव पुरंजन, अन्नाद से भूत पुरंजन तथा अन्न से पशु पुरंजन का विकास हुआ।
पुर: सीमा-भाव पुर कहा जाता है।