scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड – निराकार की अभिव्यक्ति | Patrika Group Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 3 May 2025 Sharir Hi Brahmand Expression Of The Formless | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड – निराकार की अभिव्यक्ति

ब्रह्म भी निराकार है, अकेला है, सृष्टि नहीं कर सकता। उसने इस कार्य के लिए माया को सहचारिणी के रूप में पैदा किया। वह सत्यरूपा था, जगत के रूप में माया दृश्या बनी। सारा दृश्यमान जगत माया ही है।

जयपुरMay 03, 2025 / 08:13 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी

गीता में कृष्ण कह रहे हैं कि वे सबके हृदय में प्रतिष्ठित हैं। सभी प्राणी उन्हीं के अंश हैं और सभी प्राणियों का जन्म स्थान मह:लोक ही है। ”मम योनिर्महद् ब्रह्म..।‘’ महद् लोक सातों लोकों का केन्द्र है। सृष्टि के लिए नीचे तीन लोक और मोक्ष के लिए ऊपर तीन लोक। सृष्टि के तीन धरातल भी हैं—अधिदेव, अधिभूत, अध्यात्म। सृष्टि में लोक संस्था ही पिण्ड रूप कही गई है। पृथ्वी और पार्थिव जगत अधिभूत है। सुसूक्ष्म जीव स्व:, भुव:, लोकों को पार करता हुआ भूलोक में स्थूल शरीर धारण करता है। ऊपर के किसी भी लोक में स्थूल देह अथवा पंचभूतात्मक देह नहीं है।
शास्त्र कहते हैं कि स्थूल देह धारण करने से पूर्व भी जीवात्मा भुव:-स्व:लोक में भ्रमण करता है, किन्तु देहधारी नहीं होता। ब्रह्म भी निराकार है, अकेला है, सृष्टि नहीं कर सकता। उसने इस कार्य के लिए माया को सहचारिणी के रूप में पैदा किया। वह सत्यरूपा था, जगत के रूप में माया दृश्या बनी। सारा दृश्यमान जगत माया ही है। ब्रह्म आज भी निराकार ही है। आगे भी रहेगा। वही अग्नि बनकर उसके पेट में समाता रहेगा।
ब्रह्म अव्यक्त भाव में ही पहला सत्य रूप लेता है। उसी से आगे के जगत का निर्माण होता है। माया ही निराकार ब्रह्म को साकार रूप में अभिव्यक्ति देती है। यूं तो ब्रह्म भी अग्नि-सोम रूप ही है। अग्नि ही सोम बनता है और सोम ही अग्नि रूप ले लेता है। अन्तर केवल इतना ही है कि सोम रूप में ब्रह्म निराकार रहता है और अग्नि रूप में साकार। ब्रह्म को अग्नि-प्राण रूप कहा है जो निरन्तर फैलता रहता है। आगे जाकर सोम रूप ले लेता है। पुरुष है तो अग्नि है। अत: सृष्टि रूप में- अव्यक्त रूप में पुरुष रूप लेता है। यही वेदत्रयी का प्रथम निर्माण धरातल है। यहीं से अव्यय पुरुष की वाक् रूप सृष्टि आगे बढ़ती है। सूक्ष्म सृष्टि- हृदय रूप में- केन्द्र में रहती है। स्पन्दन रूप गति-आगति के रूप में परा प्रकृति सृष्टि कार्य करती है।

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महद् ब्रह्म में गर्भित जीवात्मा आगे बढ़ता है, सोम के सहारे। जो प्रक्रिया मानव शरीर में होती है, वही ब्रह्माण्ड में होती है। अग्नि में सोम की आहुति को यज्ञ कहते हैं। अग्नि और सोम साथ रहते हैं। स्थूल का यज्ञ प्रकृति का निर्माण करने की भूमिका तैयार करता है। ब्रह्म और माया दोनों सुसूक्ष्म हैं। न ब्रह्म बदलता है, न ही माया। पंचभूतों का शरीर नई-नई आकृतियों से इसे आवृत्त करता रहता है। माता-पिता आवरण गड़ते हैं, बस। पति अग्नि है, भीतर सोम है। आहुत अग्नि नहीं हो सकता, अत: आहुति के लिए पुरुष को सोम रूप में आना पड़ता है। इसी प्रकार स्त्री भी सौम्या, है, आहुति द्रव्य है। वह आग्नेय पुरुष के पास जाती है। आहुत होकर स्वयं आग्नेय वेदी -शोणित- का रूप लेती है, जिसमें पुरुष शुक्र-सोम आकर आहुत होता है। सृष्टि स्थूल में नहीं, सूक्ष्म में घटित होती है। बीज के वपन से पूर्व ऊपर चढ़े सारे आवरण हटाने आवश्यक हैं। बीज ही ब्रह्म है। इसी प्रकार वेदी की अग्नि को भी पूर्ण प्रज्वलित करना- माया भाव प्रकट करना- उतना ही आवश्यक है। उस पर चढ़े स्त्री रूपी आवरण को जलाना होता है। तब ब्रह्म और माया एकाकार हो सकते हैं।
प्रत्येक प्रजनन यज्ञ का वही स्वरूप होता है जैसा मह:लोक के प्रथम यज्ञ का होता है। एक ही अन्तर होता है, यहां माता-पिता उसी वातावरण को पुन: तैयार करते हैं जैसा परमेष्ठी लोक एवं स्वयंभू के दाम्पत्य भाव से बनता है। मूल स्वरूप हर प्राणी शरीर में वही रहता है, बाहरी प्रपंच लोकानुसार-योनि अनुसार भिन्न हो सकता है। साकार अग्नि पहले निराकार सोम बनता है, निराकार सोम ही अग्नि बनता है, तब यह लगता है कि वही अग्नि है, वही सोम है।
उसके बाद भी एक सत्य यह रह जाता है कि ब्रह्म निष्कर्म है, किन्तु कामना प्रधान है। ऋत ही है। वह कभी लिप्त भी नहीं होता। ब्रह्म की अद्र्धांगिनी माया है। इंंजीनियर है, कलावती है। शास्त्र कहते हैं—
अर्धं स्त्रियस्त्रि भुवने सचराचरेऽस्मिन्ऐनमर्धं पुमासं इति दर्शयितुं भवत्या।
स्त्री पुंस लक्षणमिदं वपुरादृतं यत्।
तेनासि देवी विदिता त्रिजगच्छरीरा।
(आनन्द सागर सत्व)

इस त्रिभुवन में आधा भाग स्त्री है और आधा भाग पुरुष है। हे देवी! इस सत्य को प्रकट करने के लिए ही आपने ऐसा स्वरूप धारण किया है, जिसमें स्त्री और पुरुष के लक्षण हैं। इसी कारण हे देवी! आप तीनों लोकों को ही अपने शरीर में समाए हुए कही जाती हो।
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आधे भाग का अर्थ है मेरा भी आधा। पत्नी का आधा नहीं। सृष्टि पुरुष की चलती है, स्त्री कार्यकारी अधिकारी होती है। अत: आधे में उसका पौरुष भाग रहता है। स्त्री के सौम्या और शक्ति यही दो स्वरूप होते हैं। पुरुष की दृष्टि से एक ओर आधा भाग छिपा रहता है। पुरुष का आधा भाग पिता से बंधा रहता है और दूसरा आधा भाग पुत्र से। पिता से प्राप्त करता है, पुत्र को दे जाता है। यही क्रम शुरू से चला आ रहा है। यही ऋण मुक्ति भी है। इस प्रक्रिया में पुरुष का अस्तित्व गौण हो जाता है। यही है ‘जगन्मिथ्या’ का अर्थ।
जीवन की सच्चाई यही है। माटी का शरीर बनता-बिगड़ता जाता है। ब्रह्म इसी की उम्र के साथ, इसी के नाम से जीता जाता है। पुराने शरीर पुन: पंचभूतों में विलीन होते जाते हैं। कोई किसी का नहीं होता। वर्षा ऋतु में जैसे बच्चे गीली मिट्टी के घर बना-बनाकर हर्षित होते रहते हैं, ठीक वैसे ही हम भी नई सन्तान पैदा करके प्रसन्नता की अनुभूति करते हैं। हमारा शरीर भी उसी कच्ची मिट्टी की चिनाई से बनता है और सन्तान का शरीर भी। जब ढहते हैं तो हर शरीर सूना होता है- भूतमहल की तरह। कोई उसे अपने यहां रखना नहीं चाहता। यह भी कटु सत्य है कि शरीर शुद्ध माया की मृतकला या मृदा-कला ही होता है। उसका ब्रह्म से कोई सम्बन्ध नहीं होता। ब्रह्म बाहर से आकर रहता है, शरीर में प्रवाहित रहता है। शरीर की स्थूलता के माध्यम से प्राण रूप यात्रा करता है। यह हमारा भ्रम ही कहिए कि हम किसी से स्थायी रूप से बंधे हुए हैं। कच्ची गार (माटी) का मकान अगली बरसात में बह जाता है। यही कहानी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती है। नई पीढ़ी आती है तो मकान ठीक कर लेती है, वरना मकान सदा के लिए खण्डहर का रूप ले लेता है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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