scriptपत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – शक्ति के विज्ञान-भाव | Patrika Group Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 8th March On The science of power | Patrika News
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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – शक्ति के विज्ञान-भाव

जिस प्रकार आत्मा शरीर नहीं है, उसी प्रकार माता-पिता भी प्राण रूप ही कार्य करते हैं। शरीर निमित्त मात्र है, एक आयुपर्यन्त कार्य करके विदा हो जाता है। स्वयं ब्रह्म भी दोनों के शरीरों से गुजरते हुए विदा हो जाता है।

जयपुरMar 08, 2025 / 10:48 am

Gulab Kothari

सोमो प्रथमो विविदे प्रथमं गंधर्वो विविद उत्तर।

त्रितीयोंअग्निषू ते पतिषू तुरीयस् मनुष्यजा।।

सोमस्या जाया प्रथमं गन्धर्वस्तेपर:।

त्रितीयोअग्रिष्ते पतिस्तुरिस्ते मनुष्यजा।।

(ऋ. 10.85.40.)

वेद कहते हैं कि मनुष्य कन्या का चौथा पति होता है। सोम, गंधर्व और अग्नि ये तीन देवता विवाह से पूर्व उसके पालक रूप पिता थे। सोम से सौम्यता, गंधर्व से स्वर माधुर्य तथा अग्नि से तेज मिलता है। सोम, कन्या को गंधर्व को सौंपता है, गंधर्व अग्नि को और अग्नि मनुष्य को सौंपता है। ये सारा वैज्ञानिक भाव है जिसको पंचाग्नि* की अवधारणा से समझा जा सकता है।
जिस प्रकार आत्मा शरीर नहीं है, उसी प्रकार माता-पिता भी प्राण रूप ही कार्य करते हैं। शरीर निमित्त मात्र है, एक आयुपर्यन्त कार्य करके विदा हो जाता है। स्वयं ब्रह्म भी दोनों के शरीरों से गुजरते हुए विदा हो जाता है। ब्रह्म पहले कारण शरीर में आता है, अव्यय पुरुष रूप में। उसी का हृदय अक्षर पुरुष अथवा परा प्रकृति है। अव्यय-अक्षर साथ रहते हैं। यह माया का अमृत संसार है। सृष्टि के जनक हैं। अव्यय के हृदय में तीनों महामायाएं- महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली प्रतिष्ठित रहती हैं। शक्ति सदा शक्तिमान के हृदय में रहती है।

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हमारे शरीर में भी तीन ही त्रिलोकी काम करती हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर चक्र की रोदसी त्रिलोकी, मणिपूर-हृदय-विशुद्धि चक्र की क्रन्दसी त्रिलोकी, तथा विशुद्धि-भ्रूमध्य-सहस्रार संयति त्रिलोकी। मूल में ये ही तीनों की क्रमश: स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर की संचालिका बनती हैं। इसी के अनुरूप तीनों भागों में प्राणमय कोश का भी विभाजन हो जाता है। इस प्रकार पंचाग्नि के सिद्धान्त में से ये तीन भाग बाहर दिखाई पड़ते हैं। जैसा कि गीता के वाक्य हैं—
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।। (3.14)

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वृष्टि से, वृष्टि यज्ञ से होती है। अन्न की आहुति वैश्वानर में शुक्र उत्पन्न करती है। पांचवी शुक्र की आहुति होती है शोणित में, जिससे स्थूल देह का निर्माण होता है। मां आकृति का निर्माण करती है- जैसी पिता की आकृति बीज में आती है। महद् में बीजारोपण अमृत भाव में होता है। वहां केवल तात्त्विक स्वरूप होता है। माया ही अव्यय के पुर की जननी होती हे, माया ही हृदय कमल पर अवस्थित है। मां रूप है।
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माया के बल शक्ति तथा क्रिया तीन रूप हैं। इन्हीं को क्रमश: माया, योगमाया और प्रकृति कहते हैं। पुरुष से नित्य युक्त प्रकृति ही विश्व रचना का उपादान कारण है। प्रकृति की व्यक्त अवस्था ही विश्व कहलाती है। प्रकृति-पुरुष दो नहीं है। दो विशेष अवस्थाएं हैं।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। (गीता 7.24)

पुरुष ही प्रकृति बनता है, प्रकृति ही विकृति बनती है। विकृति से विश्व। एक ही तत्त्व पुरुष-प्रकृति-विकृति-विश्व चार रूपों में बदल रहा है। पुरुष-प्रकृति-विकृति ही क्रमश: अमृत-ब्रह्म-शुक्र हैं। प्रकृति के परा और अपरा दो भेद हैं। अपरा प्रकृति के विषय में कृष्ण कह रहे हैं कि पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार ये आठ प्रकार मेरी प्रकृति के हैं—
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।

अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (गीता 7.4)

पुन: उद्घोष करते हैं कि मैं ही जन्म-मृत्यु का हेतु हूं। स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूं। (गीता 10.34)
ये स्त्रियां क्या हैं- प्रकृति के विभिन्न स्वरूप ही तो हैं। प्रकृति स्वयं स्त्री स्थानीय है। दक्ष और उसकी पत्नी प्रसूति के 24 पुत्रियां पैदा हुईं। इनमें से तेरह का विवाह धर्म से हुआ। श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति धर्म की पत्नियां बनीं। शेष ग्यारह को विभिन्न ऋषियों ने ग्रहण किया। इनमें ख्याति, सती, संभूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संतति, ऊर्जा, अनसूया, स्वाहा और स्वधा को क्रमश: भृगु, महोदव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ, अत्रि, अग्नि एवं पितरों ने स्वीकारा।
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प्रकृति किस प्रकार आगे बढ़ती है, स्वभाव से स्वभाव का किस प्रकार विस्तार होता है, शब्दों के किस प्रकार अर्थ निकलते हैं, यह एक गहन तथ्य है। धर्म से शुद्ध और पवित्र शब्द क्या होगा! उसकी सन्तानों पर दृष्टिपात करें, तब कृष्ण की बात याद आएगी- त्रैगुण्यविषयावेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। श्रद्धा से काम पैदा हुआ। धर्म का पुत्र हैं। लक्ष्मी से दर्प, धृति से नियम, तुष्टि से सन्तोष, पुष्टि से लोभ, मेधा से श्रुत, क्रिया से दण्ड-नय और विनय, बुद्धि से बोध, लज्जा से विनय, वपु से व्यवसाय, शान्ति से क्षेम, सिद्धि से सुख, और कीर्ति से यश का जन्म हुआ।
एक कदम और आगे… काम और रति से हर्ष का जन्म हुआ। अधर्म और हिंसा से अनृत और र्निऋति (कन्या) का। इसके आगे नरक और भय (पुत्र) तथा माया और वेदना का जन्म हुआ। भय और माया से मृत्यु तथा वेदना से दु:ख पैदा हुए। मृत्यु से व्याधि-जरा-शोक-तृष्णा और क्रोध। अलक्ष्मी (निर्धनता) के चौदह पुत्र हुए। दस इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार। चौदहवां दु:सह- जो घरों में निवास करता है। अधर्मी पुरुष इसका बल है। नित्यकर्म के त्याग से इसकी पुष्टि होती है।
सत्व-रज-तम रूपा प्रकृति ही भूत जगत की उत्पत्ति का कारण है। प्रकृति को प्रधान कहते हैं। यही अव्यक्त है, सूक्ष्म और नित्य है। हमारे तीन शरीर, तीन माताएं- तीन पिता, तीन मन, तीन गुण- बहुत बड़ा है जीवन का त्रिक्। तीन त्रिलोकी*- शरीर में भी और ब्रह्माण्ड में भी। इन्हीं को क्रमश: रोदसी, क्रन्दसी और संयती त्रिलोकी कहते हैं। इनमें भू, स्व:, जन: तीन माताएं तथा स्व:, जन:, सत्यम् पिता रूप हैं।
सूर्य पिता और पृथ्वी माता है। अन्तरिक्ष पर्जन्य पति रूप बरसता है। जीवात्मा अन्न में प्रवेश करता है। यह रोदसी त्रिलोकी है। उसी प्रकार क्रन्दसी त्रिलोकी में सूर्य माता रूप आग्नेय तत्त्व बन जाता है। सोम का वर्षण परमेष्ठी पिता करता है। पर्जन्य पैदा होता है। संयति त्रिलोकी में जन:लोक का अंगिरा माता है, सत्यम् का स्वंयभू पिता है। महद् योनि में वपन होता है। सृष्टि का निर्माण आरंभ होता है।
मूलत: धर्म ही प्रकृति या स्वभाव है। स्वभाव में बड़ा प्रभाव वीर्य (वर्ण) का भी पड़ता है। स्त्री में स्वयं का वीर्य नहीं होता। अत: वह पुरुष वीर्य में समाहित हो जाती है। इसी प्रकार स्त्री में सृष्टि बीज भी नहीं होता। अत: वह संस्थ्यानधर्मा है। पुरुष की सन्तान से ही गर्भित होती है। उसकी अपनी कोई सन्तान नहीं होती। उसकी प्रजनन क्षमता भी ऋतुकाल पर आधारित है। एक काल के बाद ठहर भी जाती है- ऋतुकाल का अवसान हो जाता है। 
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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