हाथरस में घटनास्थल पर बाबा का प्रवचन और सत्संग चल रहा था। मौके पर पुलिस भी थी और दूसरे सरकारी अधिकारी भी, पर उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि जन समूह के हिसाब से स्थान नाकाफी है। इस समागम में दो लाख से अधिक लोग सत्संग का लाभ लेने के लिए उपस्थित हुए थे, हालांकि मुख्य सेवादार ने कार्यक्रम में सिर्फ अस्सी हजार लोगों के उपस्थित होने के लिए सरकारी स्वीकृति ली थी। एक गांव में दो-ढाई लाख की भीड़ का जुटना और वहां सत्संग में जमा रहना कम बात नहीं है। निश्चय ही उत्साह, उमंग, जिज्ञासा और अपना जीवन संवारने की अभिलाषा भीड़ जुटने का खास कारण होगा। भीड़ में सचेत व्यक्ति भी भीड़ के अचेतन व्यक्तित्व में खो जाता है। भीड़ सबसे अस्थिर और अस्थायी समूह होती है। भीड़ तकनीकी दृष्टि से मूलत: असंगठित होती है परंतु भीड़ में पहुंच कर सभी व्यक्तियों के भाव और विचार एक ही दिशा में बहने लगते हैं। भीड़ में भावनाओं पर सामूहिक प्रभाव दिखता है। व्यक्ति के अपने तर्क की जगह सामूहिक तर्क चलने लगते हंै। एक हद तक अदूरदर्शिता के साथ बुद्धि की जगह संवेदना और भावात्मकता काम करने लगती है। भीड़ में आ कर निजी या व्यक्तिगत विशेषताएं खो जाती हैं। अक्सर लोग मित्रों और परिचितों के साथ ही ऐसे जमावड़ों में जाते हैं। निजी स्व से सामाजिक पहचान ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। भीड़ में आकर ‘मैं’ की जगह ‘हम सब’ और समूह के मानकों और मूल्यों को लोग अपना लेते हैं। सभी जुट जाते हैं और सभी एक ही चीज को पाने के लिए उद्यत रहते हैं और इसके चलते भीड़ शक्तिशाली हो जाती है।
गौरतलब है कि हाथरस की हृदयविदारक त्रासदी में ज्यादातर लोग समाज के हाशिए पर स्थित वंचित और गरीब तबके से आए थे। फर्जी बाबा, तांत्रिक और स्वामी गणों की अपने देश में आज भी एक लम्बी सूची है। यह घटना भी नई नहीं है, बल्कि पहले की घटनाओं की पुनरावृत्ति मात्र है। अंध-विश्वास और अवैज्ञानिक सोच आदि की गठरी सिर पर लिए हम सब विकसित भारत की यात्रा पर चल रहे हैं। भीड़ में भेड़-चाल चलते, लाचार और दुखियारे लोग इस तरह की घटनाओं के शिकार होते हैं। उनकी एक ही चाहत होती है कि उनको कष्टों से मुक्ति मिल जाए। ज्यादातर लाचार और बदहाल लोग ही हाथरस में हादसे के शिकार हुए हैं।
घायलों को चिकित्सा सुविधा मुहैया कराना भी कठिन था। प्रशासन और आयोजक दोनों ही इस तरह की अनहोनी के लिए तैयार न थे। न एम्बुलेंस, न डॉक्टर, न ही अस्पताल की व्यवस्था। समानता, समता, समाजवाद, भाई-चारा, धर्म-निरपेक्षता, महिला सशक्तीकरण, गरीबी उन्मूलन आदि का नारा देश में पिछले कई दशकों से लगाया जा रहा है पर यह त्रासदी मंथन के लिए मजबूर कर रही है कि हम बहुत कुछ सतही स्तर पर ही करते रहे हैं। यह हादसा समाज और सरकार सबके लिए चेतावनी है। समाज में शिक्षा का विस्तार हो, विवेक बुद्धि का विकास हो और व्यवस्था चाक चौबंद हो, तभी ऐसे हादसे रुक सकते हैं।