आबूरोड। आदिवासी गरासिया समाज में होली पर्व उत्साह और उमंग के साथ मनाने की प्राचीन परंपरा है। होलिका दहन और खेलने का उनका अपना तरीका है। दुर्गम पहाड़ों और घने जंगल में बसे ये लोग आज भी रंगोत्सव की पुरातन संस्कृति को जीवंत रखे हुए हैं। आबूरोड ब्लॉक के आदिवासी बहुल भाखर समेत अन्य क्षेत्रों में पर्व की धूम है।
होली को लेकर इनकी खुशी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पर्व से सात दिन पहले से गांव-गांव में घरों के आगे परंपरागत परिधान में ढोल की धुन पर होली गीत गाते व नृत्य करते पुरुष और महिलाएं नजर आ रहे हैं। ये तस्वीरें हर किसी को आकर्षित कर रही है। आदिवासी समाज में होलिका दहन और होली खेलने का तरीका अन्य समाजों से अलग है। वे गुरुवार को होलिका दहन करेंगे। दूसरे दिन शुक्रवार परंपरा अनुसार होली खेलेंगे।
यह है होली मनाने का तरीका
आदिवासी समाज के रामलाल रणोरा बताते हैं कि होलिका दहन के दिन गांव का हरेक व्यक्ति एक लकड़ा लेकर दहन स्थल पर पहुंचता है। शाम को सब मिलकर होली बनाते हैं। रात में पंच पटेल नारियल अर्पित कर होली जलाते हैं। इस दौरान समाज के लोग सात तरह के अनाज के बीच हाथों में लेकर होलिका के चक्कर लगाते हैं।
नव विवाहित जोड़े होलिका स्थल पर थाल लेकर आते हैं। जिसका भोग लगाकर मौजूद लोगों को प्रसाद बांटा जाता है। पूरी होली जलने पर उपवासधारी लोग देवी-देवताओं की वेशभूषा धारण कर धधकते अंगारों से निकलकर उपवास तोड़ते हैं। दूसरे दिन गेर व अन्य परंपरागत नृत्य के दौरान पलास के पेड़ के फूल से तैयार रंग से होली खेलते हैं।
ढोल बजाने की अलग-अलग शैली
समाज के धर्माराम गरासिया ने बताया कि होली गीत व नृत्य पर ढोल बजाने की शैली अलग-अलग है। होलिका दहन, गेरिया नृत्य, बाबा नृत्य, ज्वार नृत्य, ढूंढ कार्यक्रम के दौरान ढोल बजाने की धुन भिन्न होती है। अगर गीत और नृत्य के अनुसार ढोल की धुन नहीं होती तो महिलाओं और पुरुष गीत गाना और नृत्य करना बंद करते हैं। यानी जैसा गीत व नृत्य उसी के अनुसार ढोल की धुन बजे तब ही उनके कदम थिरकने लगते हैं।
चूरमा-मालपुआ के शौकीन
समाज के सांकलाराम गरासिया ने बताया कि होली पर समाज के लोगों का प्रमुख स्वादिष्ट व्यंजन चूरमा और मालपुआ है। ये दोनों मिठाई लगभग सभी घरों में बनेगी। कुछ लोग खीर भी बनाते हैं। हालांकि, समय के साथ कुछ बदलाव भी हुआ है। नौकरी-पेशा वाले समाज के लोग पर्व पर बाजार से भी मिठाई खरीदकर लाने लगे हैं।
बीज खेतों में रोपित
आदिवासियों में मान्यता है कि होलिका की पूजा-अर्चना में काम में लिए अनाज के बीज खेत में रोपित करने से फसल अच्छी होती है। वे बारिश में होने वाली फसल के लिए इन बीजों को अन्य बीजों के साथ बुवाई करते हैं।
परछाई दिखना बंद हो जाए तब होलिका दहन
आदिवासी समाज में होलिका दहन में शुभ मुहूर्त नहीं देखा जाता। रात को जब चंद्रमा ऐसी सीध में दिखे जैसे वह सिर के ऊपर है व लोगों की परछाई दिखना बंद हो जाए, उसी समय होलिका दहन किया जाता है।
Hindi News / Sirohi / Holi 2025: राजस्थान में यहां मुहूर्त से नहीं सिर की सीध में चंद्रमा दिखे तब करते हैं होलिका दहन