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जलवायु संकट से घट सकती है मुख्य फसलों की पैदावार, चाहे किसान बदलाव क्यों न करें: अध्ययन

अगर तापमान बहुत ज़्यादा बढ़ा, तो 2100 तक सोयाबीन जैसी फसल की पैदावार 26% तक घट सकती है – और यह तब भी जब किसान बदलाव करें, आमदनी बढ़े और कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता से पौधों की वृद्धि तेज़ हो।

जयपुरJun 19, 2025 / 05:38 pm

Shalini Agarwal

जयपुर. एक नए अध्ययन में पाया गया है कि अगर किसान बदलते मौसम के हिसाब से खेती के तरीकों में बदलाव कर भी लें, तब भी जलवायु संकट के कारण हमारी ज़रूरी फसलों की पैदावार में “काफी” गिरावट आ सकती है।
प्रमुख फसलें जैसे मक्का, सोयाबीन, चावल, गेहूं, कसावा और ज्वार – इनकी उपज में हर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि पर प्रति व्यक्ति रोजाना 120 कैलोरी तक की गिरावट आ सकती है। यह नुकसान इतना होगा जैसे कोई व्यक्ति रोज नाश्ता ही न करे।
अध्ययन में यह भी बताया गया कि अगर किसानों की आमदनी बढ़े और खेती के तरीकों में बदलाव लाया जाए, तो 2050 तक इस नुकसान को लगभग 25% और 2100 तक करीब 33% तक कम किया जा सकता है – लेकिन इसे पूरी तरह रोका नहीं जा सकता।
अध्ययन के मुख्य लेखक एंड्रयू हुल्टग्रेन (यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉय, अर्बाना-शैम्पेन) ने कहा, “अगर भविष्य में तापमान बहुत ज्यादा बढ़ा, तब भी वैश्विक स्तर पर लगभग 25% कैलोरी उत्पादन कम हो जाएगा। यह उतना बुरा नहीं होगा जितना तब होता जब किसान कोई बदलाव न करते, लेकिन यह सोचना गलत है कि जलवायु परिवर्तन से कृषि को फायदा होगा।”
वैज्ञानिक लंबे समय से यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि जलवायु संकट खाद्य उत्पादन को कैसे प्रभावित करेगा। एक बड़ी अनिश्चितता यह है कि किसान गर्म होते मौसम के अनुसार फसलों की किस्म, बुआई और कटाई का समय और खेती के तरीके कैसे बदलेंगे।
अमेरिका और चीन के वैज्ञानिकों की टीम ने 54 देशों के 12,658 क्षेत्रों से आंकड़े जुटाए और यह देखा कि किस हद तक किसान जलवायु में बदलाव के अनुसार ढले हैं। फिर उन्होंने इन आंकड़ों को भविष्य के तापमान और आर्थिक विकास के आधार पर तैयार किए गए मॉडल्स में डाला और तुलना की, मानो धरती का तापमान 2000 के दशक की शुरुआत में ही स्थिर हो गया होता।
अगर तापमान बहुत ज़्यादा बढ़ा, तो 2100 तक सोयाबीन जैसी फसल की पैदावार 26% तक घट सकती है – और यह तब भी जब किसान बदलाव करें, आमदनी बढ़े और कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता से पौधों की वृद्धि तेज हो।
एक अपेक्षाकृत यथार्थवादी स्थिति में – जो मौजूदा जलवायु नीतियों के अनुरूप है – अध्ययन में पाया गया कि सोयाबीन की पैदावार में 16%, गेहूं में 7.7% और मक्का में 8.3% की गिरावट होगी। केवल चावल की पैदावार में लगभग 4.9% की वृद्धि हो सकती है।
दुनिया की आबादी आज 8 अरब से बढ़कर सदी के अंत तक 10 अरब हो सकती है, जिससे भोजन की मांग और बढ़ेगी, वहीं जलवायु परिवर्तन मौसम को अस्थिर करता रहेगा। अध्ययन में यह भी पाया गया कि सबसे अधिक नुकसान आज के अत्यधिक उत्पादक “ब्रेड बास्केट” क्षेत्रों को होगा, हालांकि गरीब देश इससे ज़्यादा प्रभावित होंगे क्योंकि वहां लोग महंगा भोजन खरीदने में सक्षम नहीं होंगे।
हुल्टग्रेन ने कहा, “कई जलवायु अध्ययन यह दिखाते हैं कि गरीब सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, जो यहां भी सच है। लेकिन इस अध्ययन में यह बात अलग है कि दुनिया के समृद्ध और अत्यधिक उत्पादक क्षेत्र भी सबसे ज़्यादा नुकसान झेलेंगे।”
यह अध्ययन उन पिछले अध्ययनों से अलग है जो बायोफिजिकल मॉडलिंग का इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए, 2022 में “नेचर कम्युनिकेशंस” में छपे एक अध्ययन में पाया गया था कि यदि फसलों के मौसम को समय पर बदला जाए, तो पैदावार 12% तक बढ़ सकती है।
कोलंबिया क्लाइमेट स्कूल के शोधकर्ता और इस अध्ययन के सह-लेखक जोनास जेगरमेयर ने कहा कि यह अध्ययन उन उपायों को शामिल नहीं करता जो अभी लागू नहीं हैं, इसलिए इसके नतीजे थोड़े निराशाजनक हो सकते हैं। उन्होंने कहा, “ऐसे अनुभवजन्य (एम्पिरिकल) अध्ययन अक्सर भविष्य की स्थितियों को लेकर ज़रूरत से ज्यादा निराशावादी होते हैं।”
हालांकि, सैद्धांतिक मॉडल्स की आलोचना भी होती है कि वे केवल संभावनाओं पर आधारित होते हैं और असल दुनिया की सीमाएं – जैसे बाजार की असफलताएं, मानवीय भूलें और संसाधनों की कमी – नहीं दर्शाते।
जर्मनी के लीबनिज कृषि अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक एहसान रज़ाई ने कहा, “इस अध्ययन के निष्कर्ष तार्किक हैं, लेकिन यह वैज्ञानिक बहस के एक छोर का प्रतिनिधित्व करते हैं।” उन्होंने यह भी कहा, “मुझे यह अध्ययन एक अहम सच्चाई की याद दिलाता है कि हम यह मानकर नहीं चल सकते कि अनुकूलन ही हमें बचा लेगा – सच्चाई शायद इन निराशाजनक और अन्य आशावादी अनुमानों के बीच कहीं है।”

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