हल्दीघाटी के वीर योद्धा ही नहीं, वे भारत के पहले सच्चे स्वतंत्रता सेनानी थे। उस दौर में जब समर्पण को ही अस्तित्व मान लिया गया था। उन्होंने आत्म-सम्मान को जीवित रखने के लिए कष्ट को गले लगाया, समझौते को ठोकर मारी। उनका संकल्प इतना अद्भुत था कि जब उनका देहांत हुआ, तो स्वयं उनका सबसे बड़ा दुश्मन भी रो उठा था। क्योंकि वह जानता था कि जिस योद्धा को वह कभी जीत नहीं सका, वह अब काल से परे हो गया है।
महाराणा प्रताप ने सुनिश्चित किया कि हल्दीघाटी केवल एक युद्ध न रहे- वह प्रतिरोध की परिभाषा बने। उसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। विशाल मुग़ल सेना से टक्कर लेने के बावजूद उन्होंने अपने लोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी, लेकिन झुके नहीं, समझौता नहीं किया, आत्मसमर्पण नहीं किया। उनके घोड़े चेतक व प्रिय हाथी रामप्रसाद ने बलिदान दिया, लेकिन प्रताप जीवित रहे, ताकि स्वतंत्रता की लौ बुझ न पाए।
उनकी कहानी केवल तलवार और कवच की नहीं है। वह संस्कृत के श्लोकों में गूंजती है, राजस्थानी ढोला-मारू में गाई जाती है, हिंदी कविता में पूजी जाती है, अंग्रेज़ी इतिहास में सराही जाती है और गुजराती लोक गीतों में गुनगुनाई जाती है। वे केवल याद नहीं किए जाते, वे पूजे जाते हैं। उनके युद्धों के लिए नहीं, उनके सिद्धांतों के लिए जिन्हें उन्होंने कभी त्यागा नहीं।
मैं उस 1500 वर्ष पुरानी मेवाड़ वंश परंपरा का उत्तराधिकारी हूं, जो विश्व की सबसे प्राचीन अबाध राजवंश परंपरा है, लेकिन, हमारा अभिमान महलों की दीवारों या मुकुटों के भार में नहीं है। वह महाराणा प्रताप के उदाहरण में है: उस पल में जब उन्होंने पूरी दुनिया की रीति-नीति को ना कह दिया था।
बचपन में मैं पिता दिवंगत अरविंद सिंह मेवाड़ के पास बैठकर सुनता था कि कैसे हमारे पूर्वज महाराणा प्रताप ने मुग़ल दरबार की थाली छोड़कर जंगलों में घास की रोटी खाना चुना। यह केवल बलिदान नहीं, यह एक उद्घोष था। आने वाली पीढ़ियों के लिए एक संदेश था कि यदि आत्म सम्मान के बिना जीवित रहना पड़े, तो वह जीवन व्यर्थ है। आज के भारत में हम उनके साहस की तो बात करते हैं, लेकिन उनकी स्पष्ट सोच और संकल्प को भुला बैठे हैं। उनकी तलवार की पूजा करते हैं, लेकिन उनकी रीढ़ की हिम्मत को भूल गए हैं। राष्ट्र निर्माण उनके लिए कोई नारा नहीं था। वह सेवा थी, तपस्या थी, आत्मा की पुकार थी। मेवाड़ में आज भी यह पंक्तियां सिर्फ़ कविता नहीं, जीवन मंत्र है-
ये धरती वाणी पुत्रों के अमर गान की है, शब्द साधकों के दिग्विजयी लक्ष्य दान की है, यहां लेखनी ने ज़मीर को बेचा नहीं कभी, ये धरती राणा प्रताप के स्वाभिमान की है।
तो आइए, हिन्दू पंचांग की तिथि ज्येष्ठ शुक्ल की तृतीया अनुसार 485वीं जन्म जयंती पर हम सिर्फ प्रतिमा पर फूल न चढ़ाएं, हम अपनी चेतना को उनके आदर्शों के आगे समर्पित करें। केवल उन महापुरुष की पूजा न करें, जो कभी झुके नहीं, हम खुद भी अपनी रीढ़ सीधी रखें, झूठ के आगे झुकें नहीं। उस स्वतंत्रता का सम्मान करें, जिसकी रोशनी और ताप से हम अपने वर्तमान और भविष्य को जीवंत रख सके। क्योंकि महाराणा प्रताप ने सिर्फ स्वतंत्रता के लिए युद्ध नहीं लड़ा, बल्कि उन्होंने हमें स्वतंत्रता की परिभाषा दी। अब यह हमारी बारी है, उस परिभाषा की रक्षा करने की।