पिछले कुछ दशकों में औद्योगिक इकाइयों ने इस धारा को ऐसा विष दिया कि उसकी पारंपरिक शुद्धता ही नष्ट हो गई। जहरीला रासायनिक अपशिष्ट खेतों की हरियाली निगल गया। हजारों किसान रोजगार और ज़मीन दोनों से बेदखल हो गए। लूणी के किनारे की वो उपजाऊ भूमि, जहां कभी अन्न के खेत लहराते थे, आज बंजर और वीरान पड़ी है। गांव खाली हो रहे हैं, लोग पलायन को विवश हैं।यह संकट केवल पर्यावरणीय नहीं है, यह हमारी सांस्कृतिक स्मृति और पारंपरिक जीवनशैली पर भी गहरा आघात है।
ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा बालोतरा के पादरू में की गई घोषणा-जैसे सूखे होंठों को ताजगी मिल गई हो। प्रस्ताव है कि जोधपुर से कच्छ के रण तक एक पाइपलाइन बिछाई जाएगी। जोधपुर, पाली, बालोतरा, जसोल और बिठूजा से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्ट को ड्रेन सिस्टम के माध्यम से कच्छ की खाड़ी तक ले जाया जाएगा।
यह योजना, केवल एक बुनियादी ढांचा नहीं, बल्कि मरुस्थल के पुनर्जीवन की कथा का प्रारंभ हो सकती है। लूणी में फिर से सांसें लौट सकती हैं। खेतों में हरियाली लौटेगी, गांवों में चहल-पहल बढ़ेगी, पलायन रुकेगा। उद्योगों को नियमन के साथ राहत मिलेगी, जिससे आर्थिक स्थायित्व और निवेश का मार्ग प्रशस्त होगा।
और सबसे बड़ी बात-लूणी को नया जीवन मिलेगा। यह नदी केवल जल की नहीं, बल्कि लोकजीवन, लोकगाथा, लोकआस्था और पहचान की वाहक है। लेकिन यह सपना तभी साकार होगा जब सरकार, प्रशासन और उद्योग जगत एक लक्ष्य, एक निष्ठा और एक दृष्टि से कार्य करें। योजना की डीपीआर को त्वरित स्वीकृति, जमीन अधिग्रहण में पारदर्शिता और क्रियान्वयन की सघन निगरानी अत्यंत आवश्यक होगी।
यह केवल एक ड्रेनेज प्रोजेक्ट नहीं, रेगिस्तान की उम्मीदों की पाइपलाइन है। यह प्रदूषण से मुक्ति का ही नहीं, भविष्य को सुरक्षित रखने का मार्ग है। सरकार को चाहिए कि इसे केवल बजट की फाइलों तक सीमित न रखे, बल्कि इसे रेगिस्तान की आत्मा को बचाने का जन-अभियान बनाए।