बेसहारा पशु या जनजीवन…जरा सोचिए
बेसहारा पशुओं का मामला एक अभियान की तरह लेकर चलने की जरूरत है। हालांकि, इच्छाशक्ति यहां भी आड़े आ सकती है। बस उसे जगाना होगा।


कुत्तों ने कॉलेज छात्रा को घेर कर किया हमला। शरीर पर 12 जगह दांत गड़ाए। गोधों की लड़ाई में पिसा राहगीर। बुरी तरह जख्मी। बेसहारा पशुओं का सड़क पर कब्जा। निकलना मुश्किल। आए दिन सुर्खियां बनने वाली यह चंद पंक्तियां किसी एक शहर का दर्द नहीं हैं। कमोबेश पूरे प्रदेश में हालात ऐसे हैं कि दिन हो या रात। बेसहारा पशुओं, श्वानों आदि के हमले तो अब जैसे रोजमर्रा का विषय हो गए हैं। हर हमले के बाद सवाल भी उठते हैं। जैसे अलवर की घटना में उठे। बीकानेर हो या अलवर। दूरी भले ही सैकड़ों किलोमीटर की हो, लेकिन पीड़ा जैसे एक ही है। बीकानेर में गोधों (सांड) का आतंक तो कोई बीकाणावासियों से पूछे। नामचीन व्यस्त बाजार हो या कॉलोनियां। हाई-फाई बनाया जा रहा रेलवे स्टेशन हो या बस स्टैंड। गोधों का आतंक आम जनजीवन पर सदा ही भारी रहा है। झुंड के रूप में चौक-चौराहों या सड़क के किनारे पड़ी गंदगी सूंघते यह बेसहारा पशु कब बिदक कर सड़क पर आम जनजीवन को निशाना बना लेते हैं, पता ही नहीं चलता। सड़क पर अपनी धुन या सोचों में गुम शख्स को तब ही अहसास होता है, जब वह इन बेसहारा पशुओं की एकाएक मची भगदड़ का शिकार हो जाता है। अब लाख टके का सवाल यह है कि जब दर्द और मर्ज दोनों दिखाई दे रहा हो, तो इसका स्थाई इलाज क्यों नहीं खोजा जाता। जवाब में कुछ तथ्यों पर पहले निगाह डालते हैं। बीकानेर की बात करें, तो यहां पर निगम की एक नंदीशाला है। यहां पर लगभग ढाई से तीन हजार तक पशु एक बार में रखे जा सकते हैं। लेकिन असलियत यह होती है कि वहां क्षमता से कम ही पशु हमेशा होते हैं। निगम गोधों को पकड़ने से ही बचता है, तो फिर उसे रखने की क्यों सोचे। निजी गोशालाएं भी हैं। लेकिन वह भी गायों को तो लेती हैं, लेकिन गोधों की ओर उनकी भी रुचि नहीं होती। जहां तक बजट की बात है, तो उसकी कमी नहीं होती और अनुदान भी मिलता है। बस कमी है तो इच्छा शक्ति की। निगम चाहे तो अपने अधिकार क्षेत्र वाली गोशाला में और बाड़े बना कर रख सकता है, लेकिन वह ऐसा न तो करता है और न ही सोचता है। नतीजे में बेसहारा पशु सड़क पर होते हैं और आमजनजीवन लहूलुहान होकर अस्पताल में मिलता है। क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों की भी नींद तभी टूटती है, जब कोई हादसा हो जाता है। लेकिन उनकी सांत्वना भी श्मशान तक ही जीवित रहती है, उसके बाद जैसे वे भी वैराग्य ले लेते हैं। दरअसल, यही स्थिति हालात को विकट बना रही है। बेसहारा पशुओं का मामला एक अभियान की तरह लेकर चलने की जरूरत है। हालांकि, इच्छाशक्ति यहां भी आड़े आ सकती है। बस उसे जगाना होगा।
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