Vat Savitri Vrat Katha Lessons: वट सावित्री व्रत कथा से सीख सकते हैं जीवन जीने के 9 सूत्र, व्यक्तित्व में आएगा जादुई बदलाव
Vat Savitri Katha Teaching: भारतीय ज्ञान परंपरा में कथाओं का बड़ा महत्व है, इनके माध्यम से ज्ञान का आदान प्रदान करने की हमारी रीति है। आइये जानते हैं कि वट सावित्री व्रत कथा से हम कौन सी 5 बातें सीख सकते हैं।
vat savitri vrat katha lessons In Hindi: वट सावित्री व्रत कथा से सीख सकते हैं जीवन जीने के सूत्र
Vat Savitri Vrat Katha Lessons: वट सावित्री व्रत महिलाएं अखंड सौभाग्य और पुत्र-पौत्र की कामना से करती हैं। इस दिन यमराज, सावित्री, ब्रह्माजी और बरगद की पूजा की जाती है। लेकिन इस कथा में कई ऐसी सीख भी दी गई हैं जिसे अपनाने पर लोगों की लाइफ और पर्सनॉलिटी में जादुई बदलाव ला सकती हैं। आइये पढ़ते हैं वट सावित्री व्रत कथा और इस कथा से किन बातों को सीख सकते हैं ..
वट सावित्री व्रत कथा (Vat Savitri Vrat Katha Lessons)
वट सावित्री व्रत कथा के अनुसार एक बार सनत्कुमारों ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि “हे भगवान शिव! स्त्रियों के अखंड सौभाग्य, महाभाग्य और पुत्र-पौत्र आदि का सुख प्रदान करने वाले व्रत के बारे में बताइये, इस पर भगवान शिव ने कहा, “मद्र देश में अश्वपति नाम का एक राजा था। वह अत्यंत धर्मात्मा, ज्ञानी, वीर और वेद-वेदांगों का ज्ञाता था। अश्वपति अति बलशाली और ऐश्वर्यशाली था, लेकिन राजा के जीवन में संतान का आभाव था।
संतान प्राप्ति के उद्देश्य से राजा अपनी धर्मपत्नी के साथ विभिन्न प्रकार से तप, पूजा और आराधना करने लगा। राजा अश्वपति देवी सावित्री के मंत्रों का जप करता था और उनके निमित्त भक्तिपूर्व आहुति अर्पित करता था।
हे सनत्कुमार! राजा की आराधना से देवी प्रसन्न हुईं और कृपा करके उसे वरदान देने के लिए प्रकट हुईं। भूः, भुवः और स्वः के तेज से युक्त और अक्ष सूत्र व कमंडल धारण किए हुए सम्पूर्ण सृष्टि में पूजनीय देवी सावित्री के दर्शन कर धन्य हो गया। राजा ने देवी मां को हर्षित हृदय के साथ भक्तिपूर्वक साष्टांग प्रणाम किया। राजा अश्वपति को दंड की भांति भूमि पर पड़ा देखकर देवी मां ने कहा, “हे राजन्! मैं तुम्हारी भक्ति से अति प्रसन्न हूं, इसलिए अपना वरदान मांगो”
देवी से यह सुनकर राजा प्रसन्न होकर बोला, “हे देवि! मैं निःसंतान हूं, मैं एक उत्तम पुत्र का वरदान चाहता हूं। हे जगदंबा सावित्री! पुत्र के अतिरिक्त मेरी अन्य कोई प्रार्थना नहीं है। आपकी कृपा से पृथ्वी पर उपस्थित समस्त दुर्लभ पदार्थ मेरे महल में उपलब्ध हैं। हे महादेवी! सभी सुख-सौभाग्य मुझे आपकी दया से ही प्राप्त हैं। अतः मुझे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दें मां।”
राजा द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर देवी सावित्री ने राजा से कहा कि, “हे राजन! तुम्हारा कोई पुत्र नहीं है लेकिन भविष्य में एक कन्या होगी। वह स्वयं का और अपने पति दोनों के कुल का उद्धार करने वाली होगी। हे राजशार्दूल! जो मेरा नाम है उस कन्या का भी वही नाम होगा।”
प्रयास करने पर पूरी होती है हर इच्छा
हे मुनिश्रेष्ठ! राजा को संतान प्राप्ति का वर प्रदान करने के बाद देवी वहां से अंतर्धान हो गईं। राजा आनंदमग्न हो गया। कुछ दिन बीतने के बाद रानी ने गर्भ धारण कर लिया और पूर्ण समय होने पर प्रसव हुआ। सावित्री का जाप करने के कारण प्रसन्न हो देवी सावित्री ने वरदान दिया था। इसलिए नवजात कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया, उस कन्या के नयन कमल दल की भांति थे और उसके मुखमंडल पर देवी के समान ही तेज उपस्थित था, जिस प्रकार आकाश में चंद्रमा की कलाओं में वृद्धि होती है, उसी प्रकार उस कन्या के तेज और कांति में भी वृद्धि होती थी।
वह ब्रह्मा की सावित्री थी, विशाल नयनों वाली देवी लक्ष्मी ही थी, अपनी पुत्री की हेमगर्भ के समान आभा देखकर राजा चिंतित हुआ, उसकी पुत्री सावित्री के सामान कोई सुंदर नहीं था, उसके तेज के समक्ष उसे मांगने का कोई साहस ही नहीं करता था। उसका रूप और तेज का दर्शन कर सभी राजा स्तंभित हो गए थे।
एक दिन राजा ने उस कमलनयनी से कहा, “हे पुत्री! तेरे विवाह का समय आ गया है, किन्तु कोई भी तुझसे विवाह करने के लिए प्रस्ताव नहीं ला रहा है। इसलिए जो भी गुणवान वर मिले और जिसके कुटुम्ब एवं व्यवहार से तुझे आनंद मिले, उससे तू स्वयं ही विवाह कर ले।” यह कहकर वृद्ध मंत्रियों और नाना प्रकार के वस्त्र-अलंकारों के साथ पुत्री को भेज दिया।
राजा क्षण मात्र के लिए बैठा ही था कि, उसी समय वहां देवर्षि नारद का आगमन हुआ। राजा ने अर्घ्य अर्पण और चरण प्रक्षालन कर देवर्षि नारद को आसन ग्रहण कराया। पूजन आदि करके राजा ने देवर्षि नारद से कहा कि, “आपके दर्शन करके मैं पवित्र हो गया हूं। आपने मुझे पावन कर दिया है।”
राजा देवर्षि नारद से वार्ता कर ही रहे थे कि, उसी समय आश्रम से कमलनयनी सावित्री उन्हीं वृद्ध मंत्रियों सहित वहां उपस्थित हो गईं। सर्वप्रथम तो सावित्री ने अपने पूज्य पिता जी की वंदना की, इसके बाद देवर्षि को प्रणाम किया।
सावित्री के दर्शन कर देवर्षि नारद बोले, “हे राजन! देवगर्भ के समान तेज वाली यह सुंदरी विवाह योग्य है, अतः तुम इसका विवाह किसी योग्य वर को क्यों नहीं कर रहे हो?” इस पर राजा ने उत्तर दिया, “हे मुनिश्रेष्ठ! मैंने सावित्री को इसी कार्य के लिए भेजा था। अभी यह लौट आई है। इसने अपने पति का चयन स्वयं ही कर लिया है, कृपया आप ही पूछ लीजिए।” देवर्षि नारद के प्रश्न करने पर सावित्री ने उत्तर दिया कि, “हे मुनिश्रेष्ठ आश्रम में द्युमत्सेन का पुत्र सत्यवान है। मैंने उसको ही अपने पति के रूप में चुना है।”
नारद की चेतावनी
सावित्री के मुख से यह सुनते ही देवर्षि नारद ने कहा कि, “हे राजन! आपकी पुत्री ने यह अत्यन्त अनुचित कार्य किया है। इसने सत्यवान के विषय में बिना कुछ ज्ञात किए ही उसका वरण कर लिया। यद्यपि वह अत्यंत सद्गुणी है, लोकप्रिय है और उसके माता-पिता भी सत्यवादी हैं। वह स्वयं भी सदैव सत्य ही बोलता है, इसीलिये सत्यवान के नाम से विख्यात है। उसे अश्व प्रिय हैं और वह मिट्टी के घोड़ों के साथ ही खेलता है। वह चित्र भी अश्व के ही काढ़ता हैं, इस कारण उसका एक नाम चित्राश्व भी है। वह सौन्दर्य और सद्गुणों से परिपूर्ण है और समस्त शास्त्रों का ज्ञाता है। उसके समान कोई मनुष्य नहीं है, जिस प्रकार रत्नों से महासागर परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार सत्यवान भी समस्त गुणों से युक्त है। लेकिन उसका एक ही दोष उसके समस्त गुणों को छोटा कर देता है कि एक वर्ष में उसकी आयु क्षीण हो जाएगी और वह देह त्याग कर देगा।”
देवर्षि नारद के श्री मुख से यह सुनकर अश्वपति बोल पड़े, “हे पुत्री सावित्री! तेरा कल्याण हो, तू किसी अन्य वर से विवाह कर ले, हे शुभलोचने! यही तेरे विवाह का अनुकूल समय है।”
जीवन जीने के सूत्र (Principles Of Living Life Vat Savitri Katha Lessons)
ये तीन चीजें एक बार ही होती हैं
इस पर सावित्री ने कहा कि “हे तात! मैं मन से भी किसी को नहीं चाहती, जिसका मैं वरण किया है, वही मेरा पति होगा। पहले मन से विचारकर इसके शुभ-अशुभ का विचार करना मनुष्य को पीछे करता है। इस कारण मैं मन से भी किसी अन्य पुरुष का वरण नहीं कर सकती।
सकृज्जल्पन्ति राजनसकृज्जल्पन्ति पण्डिताः। सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्॥ अर्थात, राजा की आज्ञा, पंडित के वचन और कन्यादान एक बार ही होते हैं। यह जानकर मेरा मन विचलित नहीं होगा। अब सगुण, निर्गुण, मूर्ख, पण्डित, दीर्घायु या अल्पायु आदि कुछ भी हो मेरा पति सत्यवान ही होगा। चाहे इन्द्र ही क्यों न प्राप्त हों पर मैं किसी अन्य का वरण नहीं करूंगी। अतः आपकी जो इच्छा है कहिये।” यह सुनकर देवर्षि नारद ने कहा, “हे राजन! सावित्री ने सत्यवान से विवाह करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। अतः आप शीघ्र ही इसका विवाह करके पति के साथ भेज दें।” यह कहकर देवर्षि नारद वहां से अंतर्धान हो गए।
भगवान शिव बोले कि, सावित्री के अचल, स्थिरबुद्धि और निश्चल हृदय को देखकर राजा सावित्री और अनेक प्रकार की धन-सम्पदा सहित वन में निवास कर रहे द्युमत्सेन के समक्ष पहुंचा और भेंट की। राजा के साथ वृद्ध मंत्री और कुछ अनुयायी थे। द्युमत्सेन वृद्ध एवं दृष्टिहीन था तथा एक वृक्ष के तले बैठा हुआ था। सावित्री और अश्वपति ने उसका चरण स्पर्श किया तथा अपना परिचय देते हुए पास ही खड़े हो गए।
द्युमत्सेन ने राजा से पधारने का कारण पूछा और वन के कंद-मूल फल आदि से स्वागत-सत्कार किया। इसके बाद द्युमत्सेन ने राजा अश्वपति से कुशल-क्षेम समाचार पूछे तो अश्वपति ने कहा कि, “आपके दर्शन मात्र से मेरा मंगल हो गया है। मेरी सावित्री नाम की पुत्री आपके पुत्र से प्रेम करती है। इसने स्वयं ही आपके पुत्र को अपने पति के रूप में वरा है। यह निष्पाप आपके पुत्र को अपना पति स्वीकार कर ले और मेरा और आपका सम्बन्ध स्थापित हो यही कामना लेकर मैं यहां उपस्थित हुआ हूं।”
द्युमत्सेन ने कहा कि, “हे राजन्! मैं वृद्ध और दृष्टिहीन हूं। मेरा भोजन कंद-मूल फल आदि है। राज्य से त्यक्त हूं (छीना जा चुका है)। मेरा पुत्र भी वन्य संसाधनों पर ही निर्वाह करता है। आपकी पुत्री वन्यजीवन के कष्टों को कैसे सहन करेगी? भला इसे इन दुखों का अर्थ कहां ज्ञात होगा। अतः यही कारण है कि मैं इस विवाह प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता।”
द्युमत्सेन के मन की दुविधा को समझते हुए राजा अश्वपति ने कहा, “मेरी पुत्री ने इन सभी तथ्यों को जानकर ही सत्यवान का वरण किया है। हे मान के देने वाले! निःसन्देह आपके पुत्र का सानिध्य मेरी पुत्री को स्वर्ग के समान प्रतीत होगा।” अश्वपति के वचनों को सुन उस द्युमत्सेन राजर्षि ने सावित्री और सत्यवान के विवाह के लिए समर्थन दे दिया। विवाह के बाद अश्वपति ने अनेक प्रकार से राजर्षि द्युमत्सेन का अभिवादन किया और अपनी राजधानी को प्रस्थान किया।
किसी भी परिस्थिति में हार नहीं मानना चाहिए
सत्यवान को पति के रूप में प्राप्त कर सावित्री उसी प्रकार आनन्द विभोर हो गई जिस प्रकार इंद्र को प्राप्त कर शची आनंदित होती हैं। सत्यवान भी सावित्री को पत्नी रूप में प्राप्त कर अत्यधिक हर्षित और आनन्दित हो रहा था। लेकिन सावित्री के मन में अभी भी देवर्षि नारद द्वारा कहे वचन गूंज रहे थे, इसीलिए उसने वटसावित्री व्रत करने का संकल्प ग्रहण किया। वह दिनों की गिनती करती रहती थी और सत्यवान का अंत समय निकट आने की चिंता में गृहस्थ जीवन का आनंद भी नहीं ग्रहण कर पा रही थी। सावित्री दिन-रात व्रत में ही लीन हो गई। तीन रात्रि पूर्ण कर पितृ देवताओं का तर्पण किया और सास-श्वसुर की चरण वन्दना कर पूजन किया।
इसके बाद सत्यवान एक विशाल कठोर कुठार लेकर वन की ओर प्रस्थान करने लगा। किसी अनहोनी की आशंका से सावित्री ने सत्यवान से आग्रह किया कि, “कृपया आप इस समय वन न जाए, यदि जाने के इच्छुक ही हैं, तो मुझे भी साथ आने की आज्ञा दें। इस आश्रम में निवास करते हुए एक वर्ष व्यतीत हो गया है, मैंने आज तक वन का दर्शन नहीं किया, मेरी भी वन भ्रमण की कामना है, हे स्वामिन्! हे मेरे नाथ! मुझे अपने साथ लेकर चलें।”
सत्यवान ने कहा, “हे प्रेयसी! मैं स्वतंत्र नहीं हूं! मेरे माता-पिता से आज्ञा लें और यदि वे कहते हैं, तो हे मेरी प्राणप्रिय तू अवश्य ही मेरे साथ वन को चल।” सत्यवान की बात सुनकर सवित्री सास-श्वसुर के चरणों में प्रणाम करते हुये बोली, “मैं वन भ्रमण करना चाहती हूं, कृपया मुझे आज्ञा दें, मेरा ह्रदय अपने पति के साथ वन भ्रमण के लिए अधीर हो रहा है।”
यह सुनकर द्युमत्सेन ने कहा, “हे कल्याणी! आपने व्रत किया है, अतः उसका पारण कर लीजिये, इसके बाद वन चली जाना।” सावित्री बोली।, “मैंने यह यह अनुष्ठान कर पूर्ण कर लिया है और चन्द्रोदय के बाद भोजन ग्रहण करुंगी। इस समय मेरा मन पति के साथ वन भ्रमण के लिए लालायित है। हे राजन! मुझे मेरे प्रिय पति के सामीप्य में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।”
यह सुनकर द्युमत्सेन ने कहा, “जैसा आपको उचित लगे प्रसन्नतापूर्वक वैसा ही करें।” सावित्री ने सास-श्वसुर की चरण-वन्दना की और सत्यवान के साथ वन को प्रस्थान किया। पति की मृत्यु का समय निकट था, इसलिए सावित्री लगातार उसे ही निहार रही थी। संपूर्ण वन विविध प्रकार के सुंदुर पुष्पों से सुसज्जित था। सुंदर हिरण वायुवेग से यहां-वहां दौड़ रहे थे। सावित्री इस मनोरम दृश्य को देखते हुए वन में चली जा रही थी, लेकिन मन में सत्यवान की मृत्यु के विषय में विचार कर डर भी रही थी। सत्यवान कठिन परिश्रम करने के लिए शीघ्रता से लकड़ी और फल आदि जुटाने लगा।
परम पतिव्रता, महासती सावित्री वट वृक्ष के मूल में बैठी हुई थी। उसी समय लकड़ी का भार उठाते हुए सत्यवान के मस्तक में पीड़ा होने लगी और सत्यवान को भारी कष्ट का अनुभव होने लगा। उसी देह कंपित होने लगी। वह वट वृक्ष के समीप आकर सावित्री से बोला, “मेरी देह में कम्पन हो रहा है, मेरे मस्तक में पीड़ा हो रही है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मेरे मस्तक में शूल के समान कांटे चुभ रहे हैं। हे सुव्रते! हे प्राणप्रिय! मैं तेरी गोद में विश्राम करना चाहता हूं।”
सावित्री सत्यवान की मृत्यु के समय को जानती थी। उसे यह पता चल गया था कि, काल का आगमन हो गया है, इसलिए वह उसी स्थान पर बैठ गई और सत्यवान भी उसकी गोद में मस्तक रखकर सोने लगा। उसी क्षण वहां एक काले और भूरे रंग का व्यक्ति प्रकट हुआ। उसकी देह से तीव्र तेज निकल रहा था। वह व्यक्ति सावित्री से बोला- छोड़ दे इसे! सावित्री ने प्रश्न किया कि, संसार को भयभीत करने वाले आप कौन हैं? मुझे कोई भी पुरुष भयभीत नहीं कर सकता।
धर्मात्मा और सद्गुणी व्यक्ति का यमराज भी करते हैं सम्मान
यह सुनकर लोकों में भयंकर यम ने कहा, “हे वरारोहे! तेरे पति की आयु समाप्त हो गयी है। इसे अपने पाश में बांधकर कर ले जाने की मेरी कामना है।” यमराज की यह बात सुनकर सावित्री बोली, “हे प्रभु! मैंने तो यह सुना कि आपके दूत अर्थात यमदूत प्राणी को लेने आते हैं। लेकिन आपके स्वयं उपस्थित होने का क्या कारण है?
“यम ने कहा कि, “सत्यवान अत्यंत धर्मात्मा और सद्गुणी है। अतः वह मेरे दूतों द्वारा ले जाने योग्य नहीं है। इसीलिए में स्वयं ही आया हूं।” इतना कहते हुए यमदेव ने सत्यवान के शरीर में पाशों के बंधन में बंधे अंगूठे मात्र के प्राण पुरुष को बलपूर्व खींच लिया। इसके बाद सत्यवान का शरीर निःश्वास, निष्प्राण, तेज रहित, चेष्टा रहित हो गया और यम उसे बांधकर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया।
7 आधार पर होती है मैत्री
अपने पति की मृत्यु से व्याकुल सावित्री भी यम के पीछे-पीछे चल लगी। सावित्री अपने व्रत-नियम आदि से सिद्ध हो चुकी थी और परम पतिव्रता थी, अतः यम के पीछे जाना उसके लिए सुलभ था। यम सावित्री को अपने पीछे आता देखा तो कहा, “जा इसका अन्त्योष्टि संस्कार संपन्न कर, पति के प्रति जो तेरा कर्तव्य था, वह तूने पूर्ण किया, जहां तक जाना संभव था वहां तक गी।” सावित्री ने कहा, “जहां मेरे पति को ले जाया जाए अथवा वह स्वयं जाए वहीं मैं भी रहूं, यह सनातन धर्म है। पति प्रेम, गुरुभक्ति, जप-तप और आपकी कृपा के फलस्वरूप मैं कहीं नहीं रूक सकती। तत्वदर्शियों ने सात आधारों पर मित्रता बतलायी है, मैं उसी मैत्री की दृष्टि से कहती हूँ ध्यानपूर्वक सुनो!
नानात्मवन्तस्तु वने चरन्ति धर्मं च वासं च परिश्रमं च। विज्ञानतो धर्ममुदाहरन्ति तस्मात्सन्तो धर्ममाहुः प्रधानम्॥
यह धर्म सभी धर्मों में सर्वोच्च
अर्थात, लोलुप वनवास करके भी धर्म का आचरण नहीं कर सकते, न ब्रह्मचारी, न सन्यासी हो सकते हैं, बुद्धिमान ज्ञानीजन मात्र धर्म में ही सुख मानते हैं, इसीलिए संत धर्म को ही प्रधान मानते हैं। सज्जनों द्वारा स्वीकार्य एक ही धर्म के माध्यम से हम दोनों ने एक ही मार्ग प्राप्त किया है। इसीलिए मैं गुरुकुल वास और सन्यास की इच्छुक नहीं हूं, इस गार्हस्थ्य धर्म को ही सज्जनों ने सर्वोच्च कहा है।”
यम बोले, हे अनिन्दिते! “तेरे द्वारा कहा प्रत्येक शब्द व्यंग से परिपूर्ण हैं। मैं परम प्रसन्न हूं, सत्यवान के जीवनदान के अतिरिक्त तुझे जो भी वरदान चाहिए मांग ले, मैं तेरी मनोकामना अवश्य पूर्ण करूंगा।”
सावित्री को यमराज का पहला वरदान
सावित्री बोली, “मेरे श्वसुर राज्य विहीन होकर वनवास कर रहे हैं, वह दृष्टि हीन हो गये हैं, उन्हें नेत्र प्राप्त हो जायें तथा वह सूर्य के सामान तेजस्वी एवं बलशाली हों।” यम ने कहा, “जैसे तूने कहा है वैसा ही होगा। मैं आपके मार्ग का परिश्रम देख रहा हूँ, आप अपने आश्रम के लिये प्रस्थान करें।” सावित्री बोली, “आप जहां मेरे पति को ले कर चलेंगे, मैं भी वहीं चलूंगी, इसमें मुझे कोई कष्ट नहीं होगा।”
सतां सकृत्सङ्गतमिप्सितं परं ततः परं मित्रमिति प्रचक्षते। न चाफलं सत्पुरुषेण सङ्गतं ततः सतां संनिवसेत्समागमे॥ अर्थात, सज्जनों के सानिध्य की कामना सभी करते हैं, सज्जनों का संग कभी निष्फल नहीं होता है, अतः सदैव सज्जनों की संगति करनी चाहिए।
यम ने कहा, “आपका कथन मेरे मनोनुकूल, बुद्धि-बल में वृद्धि करने वाला तथा अत्यन्त हितकारी है। हे भामिनि! सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त कोई अन्य दूसरा वर मांग लें।”
यमराज का दूसरा वरदान
सावित्री बोली, मेरा दूसरा वरदान यह है कि, “मेरे श्वशुर का छीना हुआ राज्य पुनः उन्हें प्राप्त हो जाए और वह धर्म कर्म कभी न त्यागें।” यम ने कहा, “कुछ ही समय में आपके श्वशुर को उसका राज्य प्राप्त हो जाएगा तथा वह कभी धर्म से विमुख नहीं होगा। तेरी मनोकामना पूर्ण हुई, अब घर को लौट जा, व्यर्थ कष्ट क्यों करती है?”
सावित्री बोली, मुझे ज्ञात है कि, “आपने प्रजा को नियम के बंधन में बांधा हुआ है, इसीलिए यम के रूप में विख्यात हैं। अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनागग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः॥
सनातन धर्म क्या है
मन, वाणी, अन्तःकरण से किसी से शत्रुता न करना, दान करना, आग्रह का परित्याग करना यह सज्जनों का सनातन धर्म है। इसी प्रकार यह लोक है, यहां शक्तिशाली सज्जन मनुष्य शत्रुओं पर भी दया करते हैं।”
यमराज का तीसरा वरदान
यम बोले, “आपके वचन मुझे ठीक उसी प्रकार प्रतीत होते हैं, जैसे प्यासे को जल। सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त जो उचित लगे मांग ले।” सावित्री ने कहा, “मेरा तीसरा वरदान यह है कि, मेरे पुत्रहीन पिता को सौ कुलवर्धक औरस पुत्र प्राप्त हों।” यम ने कहा, “तेरे पिता को शुभ लक्षणों से युक्त सौ पुत्र प्राप्त होंगे। हे भामिनि! तुम्हारी समस्त कामनाएं पूर्ण हुईं, अब लौट जाओ, बहुत दूर आ चुकी हो।” सावित्री बोली, “पति समक्ष मेरे लिए कुछ दूर नहीं है, मेरा मन पति समीप बहुत दूर तक भी पहुंच जाता है।
मुझे कुछ स्मरण हो आया, उसे भी सुनिये, आप आदित्य के प्रति पुत्र हैं, इसीलिए ज्ञानीजन आपको वैवस्वत कहते हैं, आप प्रजा से समान व्यवहार करते हैं, इसीलिए आपको धर्मराज कहते हैं। संसार में व्यक्तियों को स्वयं से अधिक सज्जनों पर विश्वास होता है, इसी कारण सज्जन सभी को प्रिय होते हैं।”
यमराज का चौथा वरदान
यम ने कहा, “जो जैसा वर्णन किया है, ऐसा मैंने पूर्व में कभी नहीं सुना। मैं तेरे वचनों से अति प्रसन्न हूं। सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त जो कामना हो मांग ले।” सावित्री बोली, “मुझे सत्यवान से ही औरस पुत्र हों, हम दोनों का बलशाली, वीर्यशाली सौ पुत्रों का कुल हो, यही मेरा चतुर्थ वरदान है।” यम ने कहा, “तथास्तु! तेरा और सत्यवान का सौ पुत्रों से युक्त परिवार होगा। अब वापस लौट जाएं, बहुत दूर आ चुकी हैं।”
सज्जन रक्षक होते हैं
सावित्री ने कहा, “सज्जनों की वृद्धि सदा धर्म में ही रहती है, न तो सत्पुरुष उसमें दुखी होते हैं तथा न ही विचलित होते हैं, सज्जनों का सज्जनों से संग कभी व्यर्थ नहीं होता, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं होता। सन्त ही सत्य से सूर्य को संचालित कर रहे हैं, तप से पृथ्वी को धारण कर रहे हैं। हे राजन्! सत्य ही भूत-भविष्य की गति है। सज्जनों के मध्य सज्जन दुखी नहीं होते। सज्जनों का यही व्यवहार है, सज्जन किसी का कार्य करते हुये किस फल की अपेक्षा नहीं रखते। सज्जनों की कृपा कभी व्यर्थ नहीं जाती, न उनके संग में धन एवं मान का नाश होता है, इसीलिये सज्जन रक्षक होते हैं।”
यम ने कहा, “तेरे द्वारा कहे मनोनुकूल, धर्मानुकूल तथा अर्थयुक्त वचनों को सुनकर तेरे प्रति मेरी भक्ति बढ़ती ही जाती है। अतः हे सच्चरित्रा! और वर मांग।”
यमराज का पांचवां वरदान
सावित्री बोली, “मैंने आपसे औरस पुत्र अर्थात दाम्पत्य सुख के साथ पुत्र का वरदान मांगा है और न ही मैंने किसी अन्य रीति से पुत्र प्राप्ति की कामना की है। अतः आप मुझे यह वरदान दें कि मेरा पति जीवित हो जाए, क्योंकि इसके बिना मैं भी मृत समान हूं। पति के आभाव में मुझे स्वर्ग, श्री, तथा जीवन आदि सुख कुछ नहीं चाहिए। आपने मुझे सौ औरस पुत्रों का वरदान दिया और आप स्वयं ही मेरे पति के प्राणों का हरण कर रहे हैं, इस कारण आपका वरदान कैसे फलीभूत होगा? मैं वरदान मांगती हूँ कि, सत्यवान के प्राण पुनः लौट आएं। ऐसा करने से आपके ही वचन सत्य होंगें।”
यम ने तथास्तु कहकर सत्यवान के प्राणों को पाश से मुक्त कर दिया तथा प्रसन्नतापूर्वक बोला, “हे कुलनन्दिनी! मैंने आपके पति को मुक्त कर दिया है। यह निरोग और सिद्धार्थ होगा, आप इसे ले जाए, यह आपके साथ चार सौ वर्ष की आयु प्राप्त करेगा।” सावित्री वट वृक्ष के समीप आ गई और सत्यवान के सिर को गोदी में रखकर बैठ गई।
भगवान शिव ने कहा, हे ब्रह्मन्! सत्यवान की चेतना लौट आई और वह बोला, “हे वरारोहे! हे प्राणप्रिय! अभी मैने एक स्वप्न देखा” तदोपरान्त सम्पूर्ण वृत्तान्त उसने सावित्री को सुनाया। सावित्री ने भी यम के साथ हुई अपनी वार्ता के विषय में सत्यवान को बताया।
ये भी पढ़ेंः Vat Savitri Vrat: वट सावित्री व्रत से कम आयु पति हो जाता है दीर्घायु, जानें डेट, मुहूर्त, मंत्र और पूजा विधि द्युमत्सेन अपने पुत्र के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था, लेकिन शाम का समय होते ही वह व्याकुल हो उठा और यहां से वहां चारों दिशाओं में भागने लगा। द्युमत्सेन पुत्र की खोज में एक आश्रम से दूसरे आश्रम जाता और सभी से प्रश्न करता कि, हम दोनों नेत्रहीनों की लकड़ी, मेरा प्रिय पुत्र चित्राश्व कहां गया? तथा हे पुत्र, हे पुत्र कहकर दुखी होने लगा। उसी समय राजा के नेत्र खुल गए और उसकी दृष्टि लौट आई। इस चमत्कार को देखकर आश्रम के ब्राह्मण बोले, “हे राजन्! आपके तप के फलस्वरूप आपको आपकी दृष्टि पुनः प्राप्त हो गई है, अतः यह नेत्र प्राप्ति का संकेत है कि आपका पुत्र भी शीघ्र ही प्राप्त हो जाएगा।”
भगवान शिव बोले, द्विजगण चर्चा कर ही रहे थे कि, उसी समय सावित्री सहित सत्यवान वहां आ गया और समस्त ब्राह्मणों एवं माता-पिता को प्रणाम किया। वहां उपस्थित ब्राह्मणों ने प्रश्न किया, “हे शुभानने सावित्री! क्या तुम्हें अपने वृद्ध श्वशुर के नेत्रों की पुनः प्राप्ति का कारण ज्ञात है?”
सावित्री बोली कि, “हे पूजनीय द्विजगणों! मुझे उनकी दृष्टि प्राप्ति का वास्तविक कारण तो ज्ञात नहीं है, लेकिन मेरे पति चिरनिद्रा में लीन हो गए थे, इस कारण विलम्ब हो गया।” सत्यवान बोला, “हे मुनिगणों! यह सब इस सावित्री के व्रत के प्रभाव से ही हुआ है, मुझे कोई अन्य कारण नहीं प्रतीत होता, अतः यह सावित्री के तप का ही शुभ परिणाम है। मैने स्वयं सावित्री के व्रत का यह माहात्म्य देखा है।”
शिवजी बोले, सत्यवान यह कह ही रहा होता है कि, उसी क्षण उसकी राजधानी के प्रधान पुरुषों ने आकर यह सूचना दी कि, “जिस दुष्ट मंत्री ने आपका राज्य बलपूर्वक छीन लिया था, उसका वध भी उसके मंत्री ने ही कर दिया। इसीलिए हम आपके समक्ष उपस्थित हुए हैं, हे राज-शार्दूल! अपने राज्य का पालन करने चलें। हे राजन! आप मंत्री और पुरोहितों द्वारा अपना राज्याभिषेक कराएं।” राजा उनका आग्रह स्वीकार कर उन प्रधान पुरुषों सहित अपने नगर पहुंचा अपने कुल क्रमागत राज्य को प्राप्त कर अति आनन्दित हुआ। सावित्री और सत्यवान भी अत्यन्त हर्षित हुए। इसी व्रत के माहात्म्य से सावित्री ने सौ वीर पुत्रों को जन्म दिया। यमराज के वरदान के अनुसार ही सावित्री के पिता के भी परम बलवान सौ पुत्र हुये।
हे ब्रह्मन्! यह हमने इस वट सावित्री व्रत का उत्तम महत्त्व सुना दिया है। इस व्रत के प्रभाव से आयु क्षीण होने पर भी पति जीवित हो उठता है। समस्त स्त्रियों को इस सौभाग्यदायक व्रत को करना चाहिए।”