माघ पूर्णिमा की चांदनी तले, धोरों पर लोक संस्कृति का सुरमयी उत्सव सम्पन्न
चंद्रमा अपनी पूर्ण आभा के साथ आकाश में विराजमान था, रेतीले धोरों पर उसकी श्वेत चांदनी मोती की तरह बिखर रही थी और उसी के बीच लखमणा के मखमली धोरों पर लोक संस्कृति का अनूठा संसार साकार हो रहा था।
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चंद्रमा अपनी पूर्ण आभा के साथ आकाश में विराजमान था, रेतीले धोरों पर उसकी श्वेत चांदनी मोती की तरह बिखर रही थी और उसी के बीच लखमणा के मखमली धोरों पर लोक संस्कृति का अनूठा संसार साकार हो रहा था। सुरों की रसधारा बह रही थी, लोक कलाओं का अद्भुत नर्तन हो रहा था और हजारों की संख्या में जन समूह मनोरम दृश्य को अपनी आंखों में समेट लेने को आतुर थे। मरुस्थलीय संस्कृति की जीवंत झांकी प्रस्तुत करता चार दिवसीय मरु महोत्सव बुधवार को अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचकर समाप्त हुआ, पर इसकी स्मृतियां श्रोताओं और दर्शकों के हृदय में अमिट रह गईं।जैसे ही अलगोजा के स्वर बिखरे, मानो मरुभूमि में संगीत की फुहार बरस पड़ी। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार तगाराम भील ने जब अपनी मधुर तान छेड़ी, तो समूची सभा स्तब्ध रह गई। उनकी उंगलियों से फूटती स्वर लहरियां मरुस्थल की शुष्क हवाओं को भी संगीतमय बना रही थीं। राजस्थानी और सूफी संगीत का अद्भुत मिश्रण लेकर आए भूंगर खां ने अपनी सिंफनी प्रस्तुति से लोकगीतों की आत्मा को स्पंदित कर दिया। सांस्कृतिक संध्या का सबसे भव्य आकर्षण कबीर कैफे बैंड रहा, जिसकी प्रस्तुतियों ने समां बांध दिया। कबीर के दोहों को आधुनिक संगीत के स्वर देने वाले इस बैंड की प्रस्तुति के साथ ही पूरा जनसमुदाय तालियों की गूंज में डूब गया। यहां आध्यात्मिकता और मरुभूमि की संगीतमय आत्मा का संगम देखने को मिला।
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