800 साल पहले खोजा गैलीलियो मॉडल
दूसरी ओर, इसके सैकड़ों वर्ष बाद भी यूरोप में गैलीलियो (1564-1642) को रोमन कैथोलिक चर्च ने दंडित किया। वजह थी, चर्च का बनाया खगोलीय मॉडल जिसमें पृथ्वी केंद्र में थी और सभी खगोलीय पिंड पृथ्वी के चारों ओर घूमते माने गए थे। गैलीलियो ने इसे गलत करार दिया। खास बात है कि भारत में यह मॉडल तो आठ शताब्दी पहले स्थापित किया जा चुका था। इसी तरह कई सदियों बाद पश्चिम ने सप्तर्षि मंडल को भी बिग डॉपलर कहने में कोई संकोच नहीं किया। तारों के नाम अलकाइड, मिज़ार, अलीओथ, मेरेज़, फ़ेकडा, मेराक और धुबे कर दिए गए। अरुंधति को भी अलकोर बना दिया गया।
अंतरिक्ष के लिए हमारा आकर्षण हजारों साल पुराना
प्राचीन भारत का ब्रह्मांड के प्रति आकर्षण हज़ारों साल पुराने ग्रंथों में दर्ज है। वेदों, विशेष रूप से ऋग्वेद में नासदीय सूक्त और कई ऋचाएं हैं जो अपने समय से बहुत आगे की खगोलीय समझ को दर्शाती हैं। संस्कृत शब्द ‘ज्योतिष’ खगोल विज्ञान और ज्योतिष के अध्ययन को संदर्भित करता है। यह वैदिक साहित्य का अभिन्न अंग था। वैदिक खगोल विज्ञान धार्मिक अनुष्ठानों और दैनिक जीवन को सितारों और ग्रहों के अध्ययन से जोड़ता था। ‘सूर्य सिद्धांत ग्रंथ’ और ‘पांच सिद्धांतिका’ आकाशीय पिंडों, ग्रहणों और ग्रहों के पथों की गति के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करता सबसे शुरुआती खगोलीय मार्गदर्शक है।
समय की समझ और उत्पति
प्राचीन भारतीय चक्रीय समय में विश्वास करते थे। इसमें ब्रह्मांड सृजन और विनाश के निरंतर चक्रों से गुजरता है। ‘कल्प’ के नाम से जानी जाने वाली यह अवधारणा अरबों वर्षों तक फैली है और आज के ब्रह्मांड संबंधी सिद्धांतों से मेल खाती है। 13.8 अरब वर्ष पहले, तारे या आकाशगंगाएं नहीं थीं और हमारा ब्रह्मांड केवल गर्म प्लाज़्मा का एक गोला था – इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और प्रकाश का मिश्रण। इसे हमने हिरण्यगर्भ कहा। फिर एक स्वर उभरा जिसे प्राचीन भारतीयों ने ओंकार कहा। यह स्वर उन ध्वनि तरंगों का प्रतिनिधित्व है जो प्रारंभिक ब्रह्मांड – अंधकारमय और निराकार – के अनंत महासागर से गुजरी। “क्वांटम” उतार-चढ़ाव से प्रेरित यह तरंगें बैरियन, फोटॉन और डार्क मैटर के अति गर्म प्लाज़्मा के माध्यम से प्रकाश की आधी से अधिक गति से आगे बढ़ी।
उन्नत होता खगोल विज्ञान हमें जड़ों की तरफ लौटा रहा
आज जब हम अंतरिक्ष के रहस्यों को जानने की कोशिश करते हैं, तो यह विरासत एक मार्गदर्शक बन जाती है। हमें ज्ञान की खोज में असीम संभावनाओं की याद दिलाती है। खगोल विज्ञान और भौतिकी जितनी उन्नत होती जा रही है, उतना ही हम वैदिक ऋषियों के ज्ञान और जड़ों की ओर लौट रहे हैं। ऐसा लगता है कि मानवता बस एक आनंद-भ्रमण पर सवार है। हर पीढ़ी को लगता है कि वह सब कुछ जानती है, लेकिन बाद में उसे एहसास होता है कि जानने के लिए कुछ भी नया नहीं है। जीवन की प्रासंगिकता प्राचीन ज्ञान को आत्मसात करने और उसे लागू करने में है, न कि उसे भ्रष्ट करके इधर-उधर भटकने में।