पर्यावरण : प्लास्टिक प्रदूषण क्या संधियों से नियंत्रित होगा?
डॉ. विवेक एस अग्रवाल, पर्यावरण विषयों के जानकार


यदि वातावरण में प्रदूषण का कारण आमजन से पूछा जाए तो त्वरित उत्तर होगा, प्लास्टिक, यदि यही सवाल नीतिनिर्धारकों अथवा पर्यावरण के लिए चिंतित समुदाय से किया जाए तो वे सारा दोष प्लास्टिक नियंत्रण के लिए निर्णायक संधि नहीं होने पर मढ़ देते हैं। यदि बच्चों से भी प्रश्न किया जाए कि पर्यावरण की रक्षा कैसे करनी है, तो सीधा हल होता है कि, प्लास्टिक का या बिल्कुल उपयोग न हो या कम से कम किया जाए। लेकिन बीते दो दशकों में व्यापक प्रयास एवं हर स्तर पर आए परिवर्तन के बावजूद प्लास्टिक का चलन कम नहीं हो रहा है।
यदि आंकड़ों की मानें तो दुनिया की सबसे बड़ी इमारत बुर्ज खलीफा की ऊंचाई से भी अधिक प्लास्टिक के पहाड़ बन गए हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्लास्टिक को एक वैश्विक समस्या मानते हुए इसके हल के लिए निर्णायक संधि के लिए वर्ष 2022 में प्रस्ताव पारित कर अपेक्षा रखी थी कि 2024 के समापन पूर्व बंधनकारी संधि राष्ट्रों के मध्य क्रियान्वित हो। लेकिन मतभेदों के चलते अब भी उसका अगला दौर आगामी अगस्त माह में फिर एक बार किसी सहमति तक पहुंचने के लिए प्रयासरत होगा।
देश में प्लास्टिक कितना पैदा होता है? उसके बाद उपयोग कितना आता है? उपयोग के बाद संग्रहण कितना होता है और अंत में कितना प्लास्टिक कचरे के रूप में प्रवाह में आता है? इस बारे में कहीं भी कोई ठोस और एकमत आंकड़े उपलब्ध नहीं है। जहां स्थानीय निकाय से लेकर सरकार तक बहुत कम प्लास्टिक अपशिष्ट सृजन की बात करते हैं, वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्लास्टिक प्रदूषण के लिए आवाज उठाने वाले संगठन तथा बाहरी एजेंसियां भारत में विश्व के 20 प्रतिशत तक प्लास्टिक कचरे का दावा कर लेती हैं। यदि इनका वास्तविक आकलन किया जाए, तो कहीं भी- किसी भी प्रकार से सामंजस्य प्रतीत नहीं होता है। यदि पर्यावरण पर कार्य कर रही संस्थाओं की भी मान ली जाए तो भारत में प्रति व्यक्ति लगभग 120 ग्राम प्लास्टिक कचरा प्रतिदिन पैदा होता है। इसके बावजूद भी भारत प्लास्टिक कचरा उत्पादन करने वाले प्रथम पांच देशों में सम्मिलित नहीं है। भारत से 10 गुना से भी अधिक दुनिया का सर्वाधिक प्रतिव्यक्ति प्लास्टिक कचरा उत्पादन अमरीका द्वारा किया जाता है और चीन जैसे समान आबादी वाले देश भी प्रति व्यक्ति प्लास्टिक कचरा उत्पादन में भारत के लगभग बराबर स्थान पर ही है।
समस्या प्लास्टिक के उत्पादन से अधिक उसके निस्तारण की है। जैसा माना भी जाता है कि भारत में उत्पादित प्लास्टिक कचरे का एक तिहाई से अधिक खुले वातावरण में ही निष्पादित हो जाता है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि प्लास्टिक कचरे को खुले वातावरण में आने से ही रोका जाए। इसके लिए संधियों से दीगर वास्तविक रूप से धरातल पर काम करने की आवश्यकता है। यदि वर्ष 2014 से प्रारंभ स्वच्छ भारत अभियान के बाद भारत के परिदृश्य को देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि आमजन में कचरा प्रबंधन और विशेष तौर पर प्लास्टिक से मुक्ति के लिए एक व्यापक समझ एवं जागृति पैदा हो गई है। लोगों का रुझान भी कचरे के सही प्रकार से निष्पादन की ओर बढ़ा है, लेकिन वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या इसके सही प्रकार से संग्रहण एवं उसके बाद निष्पादन की है।
आगामी एक जुलाई 2025 से लागू होने वाले संशोधित प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 के द्वारा ये कवायद की गई है कि प्लास्टिक पैकेजिंग के स्रोत से लेकर उसके निर्णायक निष्पादन तक बारकोड अथवा क्यूआर कोड के माध्यम से ट्रैकिंग की जाए। पैकेजिंग सामग्री के उत्पादन में संलग्न इकाइयों को इसके लिए अधिक जवाबदेह बनाया गया है। संशोधित नियमों में प्लास्टिक पैकेजिंग का उपयोग करने वाली इकाइयों द्वारा नियमों की अवहेलना करने की अवस्था में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की धारा 15 के तहत दंडात्मक कार्रवाई का भी प्रावधान किया गया है, ताकि उन पर अंकुश लगाया जा सके और कानून की पालना के लिए विवश किया जा सके।
लेकिन यदि वर्तमान कचरा प्रबंधन व्यवस्था को देखा जाए तो अधिकांशतया प्लास्टिक अब भी कचरे में जैविक भाग के साथ ही प्राप्त होता है और रही सही कसर उसे खुले में जलाकर पूरी कर दी जाती है। यदि प्लास्टिक से हो रहे प्रदूषण को वास्तव में रोकना है, तो उसके लिए पहले कदम के रूप में घरों से बाहर निकल रहे कचरे को प्लास्टिक की थैलियों के साथ विसर्जित करने पर कठोर पाबंदी लगानी होगी। यह पाबंदी कानून के माध्यम से न होकर सामाजिक रूप से अथवा कचरा संग्रहण करने वाले स्वच्छताकर्मियों द्वारा प्लास्टिक की थैली में कचरा लेने से मनाही करने पर प्रभावी रूप से लागू हो सकती है। इसके लिए एक जन आंदोलन के रूप में घर से कचरे का निष्पादन प्लास्टिक की थैली में न हो इस बाबत अभियान चलाने की आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त न सिर्फ भारत अपितु समूची दुनिया में प्लास्टिक से हो रहे प्रदूषण के लिए अनौपचारिक क्षेत्र को दोषी मान लिया जाता है और संपूर्ण दारोमदार औपचारिक क्षेत्र में ही रखने बाबत लॉबिंग की जाती है। रीसाइक्लिंग और उससे जुड़ी शृंखला में जमीनी स्तर पर कार्य कर रहे कबाड़ी, बीनर इत्यादि कई नाम से जाने जाने वाले कर्मी उपेक्षाओं के बावजूद प्रभावी कचरा संग्रहण करने का कार्य करते रहे हैं। लेकिन उनकी क्षमता संवर्धन की ओर प्रयास न कर, संगठित इकाइयों को इस व्यवस्था में रोपित कर दिया गया है। इस कारण, ये सूक्ष्म स्तर पर व्यवसाय कर रहे कर्मी उद्यमी के स्थान पर कर्मचारी की भूमिका तक सीमित हो गए हैं। परिणामस्वरूप, उनके नवाचारों एवं अधिकाधिक कार्य करने की मंशा भी सीमित हो गई है। वैश्विक रूप से वृहद संरचनायें कायम की जा सकती है, लेकिन यदि प्रभावी प्रबंधन को अंजाम देने के लिए तो कबाड़ी जैसे जमीनी कर्मियों को सक्षम बनाना जरूरी होगा।
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