भारतीय सौंदर्य को कला के आनंद और आध्यात्मिकता के बीच ढूंढा जा सकता है। सौंदर्यबोधात्मक अनुभव का उद्देश्य है ‘आनंद और सुख’ की रचना करना। वैसे आनंद को हमारे यहां, ‘रस और ब्रह्म’ भी कहा गया है और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय सौंदर्यबोध अंतत: सर्वोच्च सत्य यानी ब्रह्म सत्य में विलीन होता है। सौंदर्यबोध का अंतिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की प्राप्ति है। यानी कला के माध्यम से मोक्ष! एक अनूठा मोक्ष मार्ग! शायद इसलिए वेदांत में कहा गया है सृष्टि में सभी कुछ सुंदर है और आंतरिक सार्वभौम समरसता ही मंगलमय है।
सच्चा सौंदर्य अंतिम सत्य की भांति है, जो उसी पर उद्घाटित होगा जिसमें सत्य के प्रति जिज्ञासा है। यदि सत्य को समझना है तो कला को समझना ही होगा। भारतीय परिपेक्ष्य में कला का उद्देश्य है रुचिकर (आनंददायी) ढंग से शिक्षित करना और व्यक्ति को परम आनंद की प्राप्ति कराना। अत: कला का लक्ष्य या उद्देश्य और ‘वेद’ का उद्देश्य कमोबेश एक ही है। वेद ‘राजा’ की तरह संवाद करते हैं। वही पुराण ‘मित्र’ की तरह। काव्य या कला, कांता (प्रेमिका) की तरह संवाद करती है। वेद के संदेश ‘प्रभु संहिता’ कहलाते हैं। जो मूलत: आदेशात्मक हैं और स्वामी से किसी भी तरह के प्रश्न करने की मनाही है। हम आप वेद के एक भी शब्द को परिवर्तित नहीं कर सकते। वहीं ‘पुराण’ तो ‘मित्र संहिता’ यानी मित्र की तरह व्यवहार करते हैं।
ऐसा मित्र जो आप पर कुछ भी थोपता नहीं है। भारतीय सौंदर्यबोध को जानने समझने के लिए स्वामी और मित्र के बीच के अंतर और मित्र और प्रेमी के बीच के अंतर को भी भलीभांति समझना होगा। भारत से सुदूर रूस में 19वीं शताब्दी के लेखक फ्योदर दोस्तोयेव्स्की ने कहा था, ‘सुंदरता ही दुनिया को बचाएगी।’ यदि भारतीय सौंदर्यबोध को समझना हो तो कह सकते हैं, ‘सुंदरता की पूजा ईश्वर की पूजा जैसी ही है, सुंदरता और कुछ नहीं सिर्फ ईश्वर है।’