शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर की यह संस्था इस दिशा में अग्रणी मानी जा सकती है, जिसने फिल्मों के रिस्टोरेशन की शुरुआत ही नहीं की बल्कि रिस्टोरेशन को वैश्विक स्तर पर पूरा किया। वास्तव में फिल्मों के डिजिटलाइजेशन और रिस्टोरेशन में एक बड़ा फर्क है, डिजिटलाइजेशन में फिल्म सुरक्षित हो जाती है, थोड़ी स्पष्ट हो जाती है, लेकिन रिस्टोरेशन में उसके एक-एक फ्रेम के मूल पर काम करना होता है, ताकि मूल कृति का प्रभाव यथावत रहे। इसी मूल प्रभाव के लिए ‘अरण्येर दिन रात्रि’ का रिस्टोरेशन इटली के ला इमेजिन रित्रोवता लैब में कराया गया। फाउंडेशन ने इस रिस्टोरेशन के लिए मूल कैमरा और साउंड निगेटिव को निर्माता पूर्णिमा दत्ता से उपलब्ध कर लैब को भेजा।
यह सुखद संयोग ही कह सकते हैं कि 1970 की इस फिल्म की मूल निगेटिव निर्माता ने सुरक्षित रखी थी, नहीं तो रखरखाव के अभाव में अपनी हजारों धरोहर हम गंवा बैठे हैं। दादा साहब फाल्के की कितनी फिल्में उपलब्ध हैं? मुबई में अधिकांश लैब अब अपना काम समेट रहे हैं, जहां मूल निगेटिव सुरक्षित रखे जा सकते थे, क्योकि फिल्म की तकनीक ही बदल गई। फिल्मकार गिरीश रंजन ने कमलेश्वर की कहानी पर ‘डाक बंगला’ फिल्म बनाई, वे अब नहीं रहे, न ही कहीं उनकी यह फिल्म है।
गिरीश रंजन कहते थे, लैब वाले ने उसे बाहर बरामदे पर निकाल दिया था, मूल प्रिंट ही खत्म हो गई। ऐसी हजारों फिल्में हैं, जिसे ‘अरण्येर..’ की तरह तवज्जो चाहिए, लेकिन एक फाउंडेशन से यह नहीं हो सकता। सवाल यह भी है क्या हम अपने धरोहरों के प्रति सचेत भी हैं? कुछ समय बाद राजकपूर, दिलीप कुमार, विमल राय के बस नाम भर रह जाएंगे, रिस्टोरेशन से उनकी फिल्में बच भी जाएं, हम किसी को यह नहीं दिखा सकेंगे कि यह वह जगह थी जहां राजकपूर स्क्रिप्ट सुनते-सुनते सो जाया करते थे। वे तमाम जगहें हम खत्म हो जाने दे रहे हैं। ‘अरण्येर दिन रात्रि’ की शूटिंग उस समय के बिहार के वनक्षेत्र पलामू के जंगलों में हुई थी।
कोलकाता से शांति की तलाश में जंगल पहुंचे चारों मुख्यपात्र जिस गेस्ट हाउस में घूस देकर ठहरते हैं, वह ‘केचकी गेस्ट हाउस’ वास्तव में वन विभाग का गेस्ट हाउस था, कह सकते हैं आज भी है। लेकिन फिल्म देखने के बाद यदि आप वही केचकी नदी, वही जंगल, वही गेस्ट हाउस ढूंढने की कोशिश करेंगे, तो आपको निराशा मिलेगी। वास्तव में ऐसे स्थानों का ‘रिस्टोरेशन’ होना चाहिए, ‘रिनोवेशन’ नहीं।
जिस स्थान पर सत्यजीत राय ने एक क्लासिक फिल्म शूट की हो, जहां की झोपडियों में शर्मिला टैगोर और सिमी ग्रेवाल जैसी अभिनेत्री ने पूरे महीने बिताए हों, वह स्थान अपने मूल रूप में विश्व को आकर्षित कर सकता था, वास्तव में अरण्य की खूबसूरती तो उसके मूल रूप में ही है, यह अद्भुत समझ है कि जंगलों का विकास भी तब तक पूरा नहीं माना जाता जब तक कि कंक्रीट का एक सामानांतर जंगल वहां खड़ा न हो जाए।