बच्चे हमारे भविष्य का प्रतिबिंब माने जाते हैं, लेकिन जब उनका जन्म लेना ही परिवारों की आर्थिक स्थिति पर निर्भर हो जाए, तो सवाल उठते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार, 39 प्रतिशत लोगों ने स्पष्ट रूप से कहा कि वित्तीय परेशानियों के कारण वे बच्चे पैदा नहीं करना चाहते। इनमें से 58 प्रतिशत लोग 35 वर्ष से कम आयु के हैं, जो अपने जीवन के सबसे क्रियाशील और प्रजननक्षम दौर में हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, सामाजिक और मानसिक बदलाव का प्रतीक है।
मुंबई की नीलिमा और शंकर की कहानी इस बदली हुई सोच का जीवंत उदाहरण है। दोनों नौकरीपेशा हैं, लेकिन जब बेटी के जन्म के बाद प्राइवेट अस्पताल का खर्च, स्कूल की फीस, डे केयर की लागत और घर के किराए का बोझ सामने आया, तो उन्होंने तय किया कि वे दूसरा बच्चा नहीं करेंगे। वे अकेले नहीं हैं- लाखों युवा जोड़े आज इसी द्वंद्व से जूझ रहे हैं। भारत जैसे देश में, जहां पारिवारिक ढांचे को लंबे समय से सामाजिक सुरक्षा का आधार माना गया है, यह परिवर्तन चौंकाने वाला है। बच्चे पैदा न होने में सिर्फ आर्थिक ही नहीं, जैविक और मानसिक कारण भी हैं।
आधुनिक जीवनशैली, तनाव, प्रदूषण और देर से विवाह की प्रवृत्ति प्रजनन पर नकारात्मक असर डाल रही है। इसके साथ ही, सामाजिक दबाव, विशेषकर महिलाओं पर, मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और परिवार को आगे बढ़ाने के फैसले को और कठिन बनाता है। रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि 31 प्रतिशत प्रतिभागियों (जो 50 वर्ष से अधिक आयु के थे) ने कहा कि अगर उन्हें आज के दौर में दोबारा जीवन जीने का मौका मिलता, तो वे शायद बच्चे न ही करते। यह पीढ़ी दर पीढ़ी सोच में आए बदलाव का प्रतीक है। जहां पहले बच्चे सामाजिक उत्तरदायित्व माने जाते थे, अब उन्हें एक महंगा ‘इमोशनल इन्वेस्टमेंट’ कहा जा रहा है।
युवाओं के बीच कॅरियर, यात्रा, आत्मनिर्भरता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल्य पहले की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। बच्चों की परवरिश को वे न केवल आर्थिक बाधा मानते हैं, बल्कि इसे उनके निजी जीवन की रफ्तार पर ‘ब्रेक’ समझते हैं। यह स्थिति केवल एक सामाजिक प्रवृत्ति नहीं है, यह सार्वजनिक नीति का भी असफल पहलू बनती जा रही है। भारत सरकार की कई योजनाएं जैसे मातृत्व लाभ योजना, आयुष्मान भारत, बाल सुरक्षा योजना आदि कागजों पर जितनी भव्य हैं, जमीनी स्तर पर उतनी प्रभावी नहीं दिखतीं। स्वास्थ्य सेवाओं की लागत, प्राइवेट स्कूलों की फीस, पोषण व सुरक्षा पर खर्च और बच्चों के लिए जरूरी डिजिटल एक्सेस- यह सब मिलाकर एक मध्यमवर्गीय परिवार की कमर तोड़ देता है।
समाज में एक समय था जब बच्चे को जन्म देना एक नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अनिवार्यता मानी जाती थी। आज वह कल्पना तिनके की तरह टूट रही है। अब ‘हम दो हमारे दो’ भी महंगा सौदा लगने लगा है। यदि युवा पीढ़ी बच्चों को भविष्य का बोझ मान रही है, तो यह केवल उनका नहीं, पूरे समाज की पराजय है। परिवर्तन का समय आ चुका है जब बच्चा पैदा करने का निर्णय एक भय नहीं, स्वतंत्रता हो; एक बोझ नहीं, सौभाग्य हो।
— प्रियंका सौरभ
( स्वतंत्र लेखिका एवं स्तंभकार)