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जातिप्रथा को किया वोट बैंक की तरह इस्तेमाल

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

जयपुरJun 12, 2025 / 12:53 pm

harish Parashar

देश में वर्तमान में जो कलहपूर्ण और विवादपूर्ण राजनीतिक वातावरण बना हुआ है वह जातिप्रथा के कारण ही बना हुआ है। जातिप्रथा वास्तव में अर्थव्यवस्था का ही यथार्थ रूप है। देश में जितनी भी जातियां हैं, मूलत: वे कर्म के साथ ही जुडीं हुईं है। खाती, मोची, लुहार, चौधरी, पटेल, पटवारी, कानूनगो, पुजारी, कोठारी, भंडारी आदि सभी जातियां कर्म से जुडीं हैं। कुछ एक जातियां महत्वपूर्ण व्यक्तित्व के वर्चस्व के कारण बन गईं जैसे- ऋषियों के नाम पर वशिष्ठ, भारद्वाज, कौशिक आदि बन गए। कितनी ही जातियां स्थान के साथ जुड़ गईं जैसे- फतेहपुरिया, जैसलमेरिया, मलीहाबादी, बगड़का, सिंघानिया आदि। फिर भी जातिप्रथा का मूल स्वरूप आर्थिक है।
उत्पादन, सेवा एवं वितरण कर्म के कारण भिन्न-भिन्न जातियों का जन्म हुआ है। इस जातिप्रथा का रूप भिन्न-भिन्न शिल्पों में भी देखा जा सकता है। यह स्वाभाविक ही है कि किसी भी शिल्प, सेवा या कर्म का विकास वंश परम्परा के माध्यम से अधिक सुचारू रूप से होता है। इसी कारण हमारे यहां जन्मना जातियां बनी गईं जिसे कुप्रथा मानकर सदियों से कोसा जाता रहा है। गौतम बुद्ध से लेकर गांधी तक कोई भी धर्मगुरु, शासक या राजनेता ऐसा नहीं हुआ जो जातिप्रथा का समर्थक रहा हो। आजादी के बाद नेताओं का अभियान रहा है कि जातिप्रथा समाप्त हो जाए लेकिन वह अधिक बढ़ गई क्योंकि वह रूढि़मात्र ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के ठोस आधार पर खड़ी है।
हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे नेताओं ने अर्थव्यवस्था को आधार मानकर इसी व्यवस्था को आधुनिक तकनीक और बाजार व्यवस्था के सहारे विकसित करने के बजाय विदेशी अर्थशास्त्र के बल पर विकास योजनाएं बनाईं और उधार के आधार पर सतही आर्थिक कार्यक्रम चलाए। किसी भी विकास कार्यक्रम को जनसमर्थन नहीं मिला। हमारे राजनेता जनसमर्थन का रोना रोते रहे परन्तु विकास कार्यक्रमों का जो फल मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। हमने कभी जातिप्रथा को शक्ति समझा ही नहीं। उसे एक रूढि़ समझकर दुत्कारते रहे या आरक्षण के माध्यम से उसे एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते रहे।
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अज्ञान व स्वार्थ ने बना डाला अभिशाप
विडम्बना यह है कि जातिवाद के नाम पर आज वर्णव्यवस्था को कोसा जा रहा है। मनु को बार-बार धिक्कारा जा रहा है जबकि मनु का इस जातिप्रथा से कोई संबंध नहीं है। इसका भी जिम्मा हमारे तथाकथित धर्मगुरुओं का है जो थोथे द्विजाति वर्ग को प्रश्रय देते हैं और उसे वर्णव्यवस्था की देन बताते हैं।
यदि हम जातिप्रथा को देश की जीवन शक्ति के रूप में ग्रहण करते तो इतनी महान जनशक्ति आज तैयार होती जो दुनिया के किसी देश में नहीं है। भारत की सभी जातियां निपुण श्रमिक (स्किल लेबर) की श्रेणी में आती है। जरूरत थी इस निपुणता को विकसित करने की। जातिप्रथा ने देश को निपुणता दी, अनुशासन दिया, एक आचार संहिता प्रदान की, सुरक्षा की भावना प्रदान की, सेवाओं को सुव्यवस्थित रखा, उत्पादन बढ़ाए रखा,वितरण को सुचारू रूप से चलाए रखा। इतनी सुंदर व्यवस्था को हमने अपने अज्ञान एवं राजनीतिक स्वार्थ के कारण अभिशाप बना डाला। विडम्बना यह है कि आज भी हम इसको समझने को तैयार नहीं हैं।
( 1 मार्च 1995 के अंक में ‘कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नहीं, हम सब शूद्र हैं’ आलेख से)
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कर्म करने वालों को नमन
दरअसल इस देश की जड़ में, गांव की संरचना में वेद संस्कारगत रूप में मौजूद है। वेद में यज्ञीय वृक्षों का अलग से उल्लेख है। कर्म करने वालों को तो वेद नमन करता है। नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यो नम:। यह तो यजुर्वेद में लिखा है। शिल्पियों, खातियों, लुहारों सबको नमन वेद में है। यह नीची जाति का है, यह शूद्र है यह सब तो धर्मधारियों, पोंगापंथियों की निजी बकवास है। वेदों ने तो शूद्र को तपस्वी बोला है ‘तपसे शूद्रम’। यह वेदवाक्य है। वेद की कसौटी पर अगर कसें तो हम शूद्र कहलाने लायक भी नहीं हैं।
(कुलिश जी आत्मकथ्य पर आधारित पुस्तक ‘धाराप्रवाह’ से )

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