बढ़ते प्रदूषण को लेकर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए.एस. ओका की अगुवाई वाली बेंच ने कहा था कि प्रत्येक नागरिक का अधिकार है कि वह प्रदूषण रहित वातावरण में रहे। अनुच्छेद-21 के तहत नागरिकों को जीवन की स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है और इस अधिकार में प्रदूषण मुक्त जीवन भी शामिल है। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा द्वारा वायु गुणवत्ता प्रबंधन (सीएक्यूएम) अधिनियम की धारा 14 के तहत पराली जलाने संबंधी आदेशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में अनिच्छा पर भी अपनी चिंता दोहराई थी। दरअसल पराली का धुआं भी दिल्ली की हवाओं पर भारी पड़ता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों दिल्ली-एनसीआर में खराब होती वायु गुणवत्ता पर नियंत्रण करने में विफल रहने पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि शुद्ध हवा नहीं मिलना लोगों के प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने के मौलिक अधिकार का हनन है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम को संशोधनों के जरिये दंतहीन बनाए जाने पर केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट की बेंच का कहना था कि केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की संशोधित धारा-15 बेकार यानी ‘दंतहीन’ हो गई है। बेंच ने यह भी कहा था कि केंद्र और राज्यों को यह याद दिलाने का समय आ गया है कि अनुच्छेद-21 के तहत लोगों को प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने का मौलिक अधिकार है।
सर्दियों में हर साल दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की विकराल होती स्थिति पर कठोर टिप्पणियां करते हुए सुप्रीम कोर्ट कहता रहा है कि प्रदूषण नियंत्रण के लिए सब कुछ केवल कागजों में ही हो रहा है जबकि जमीनी हकीकत कुछ और है लेकिन उसके बावजूद सरकारों द्वारा कोई ऐसे कठोर कदम नहीं उठाए जाते, जिससे स्थिति को विकराल होने से रोका जा सके। पिछले साल भी न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए जिम्मेदार प्राधिकरणों की नाकामी का उल्लेख करते हुए स्पष्ट तौर पर कहा था कि दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) बेहद खराब स्थिति में है और आने वाली पीढ़ियों पर इसका बुरा असर पड़ेगा। कोर्ट ने कहा था कि कुछ दशक पहले तक यह दिल्ली का सबसे अच्छा समय होता था लेकिन अब स्थिति बिल्कुल अलग है और प्रदूषण के कारण घर से बाहर कदम रखना भी मुश्किल हो गया है।
बहरहाल, यह बेहद चिंता की बात है कि प्रतिवर्ष कैलेंडर पर केवल साल बदलता है लेकिन प्रदूषण की वही पुरानी कहानी हर बार दोहराई जाती है। लोग जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर होते हैं और सबसे बड़ी विड़म्बना यह है कि ये वे लोग हैं, जो उन शहरों में रहते हैं, जहां से सरकारी खजाने की झोली सबसे ज्यादा भरी जाती है लेकिन हर साल बड़े-बड़े दावे किए जाने के बावजूद स्थिति में किसी प्रकार का सुधार नहीं दिखता बल्कि लोगों को ही नसीहतें दी जाने लगती हैं कि सुबह की सैर पर मत निकलें या घर के खिड़की-दरवाजे बंद रखें या फिर घर से बाहर मास्क पहनकर निकलें। प्रदूषण की बदतर स्थिति को देखते हुए दिल्ली में प्राइमरी स्कूल तो बंद कर भी दिए गए हैं।
प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर हर साल दिल्ली-एनसीआर में ग्रैप से लेकर तमाम आर्थिक गतिविधियों को या तो सीमित कर दिया जाता है या कुछ समय के लिए प्रतिबंधित लेकिन इससे कुछ भला नहीं होने वाला। यह बात सही है कि वाहनों के धुएं से लेकर तमाम आर्थिक गतिविधियों की प्रदूषण बढ़ाने में अहम भूमिका रहती है लेकिन सर्दियों में प्रदूषण का सितम बढ़ाने में पराली (धान का अवशेष) जलाने की घटनाओं का योगदान भी कम नहीं होता लेकिन इस पर कोई विराम लगाने के बजाय यह मामला राज्यों की आपसी राजनीतिक रस्साकशी और आरोप-प्रत्यारोप में उलझकर रह जाता है। दरअसल किसानों की नाराजगी मोल लेने से बचने के लिए कोई भी राजनीतिक दल उन पर सख्ती करने से हिचकता है। हालांकि प्रदूषण नियंत्रण को लेकर देश में कई कानून लागू हैं लेकिन उनके अनुपालन में शायद ही कभी गंभीरता दिखती है। तय मानकों के अनुसार हवा में पीएम की निर्धारित मात्रा अधिकतम 60-100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होनी चाहिए किन्तु इस सीजन में तो यह अब हर साल 400 के पार रहने लगी है। वायु प्रदूषण की गंभीर होती समस्या का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि देश में हर 10वां व्यक्ति अस्थमा का शिकार है और गर्भ में पल रहे बच्चों तक पर प्रदूषण का असर हो रहा है यानी हमारी अगली पीढ़ी तो पूरी तरह निखरने से पहले ही इस ग्रहण का दंश झेलने को अभिशप्त है। यह निश्चित रूप से खतरे की बहुत बड़ी घंटी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरण मामलों के जानकार तथा ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के लेखक हैं)