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दिव्य दृष्टि वाला गुरु हो तो परिपक्वता कम उम्र में ही

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

जयपुरJul 11, 2025 / 09:14 pm

harish Parashar

गुरु वही जो जीने की राह दिखाए। ज्ञान और अनुभव दोनों को एक ही तराजू में नहीं रखा जा सकता। बिना मार्गदर्शन और दिशा के जीवन में आगे बढऩे को ज्ञान नहीं कहा जा सकता। ज्ञान तो ईश्वरीय प्रेरणा या गुरु से ही मिलता है। गुरु पूर्णिमा के मौके पर कुलिश जी के इन्हीं भावों को ‘धारा प्रवाह’ में व्यक्त किया। प्रमुख अंश:’
प रिपक्वता या तो आयु के साथ आती है या कोई दिव्य दृष्टि वाला गुरु मिले तो कम उम्र्र में ही मिल जाती है। बिना मार्गदर्शन और दिशा के जीवन में आगे बढऩा ‘ज्ञान’ नहीं है। उम्र के साथ-साथ आई ‘परिपक्वता’ है। ज्ञान तो स्वत: उद्भूत है…ईश्वरीय प्रेरणा या गुरु से ही मिलता है। उम्र के साथ जो मिलता है वह अनुभव है। अनु और भव यानी जो बाद में पैदा हो। अंग्रेजी में कहते हैं…एक्सपीरियेंस यानी एक्सपायर होने के बाद हाथ में आने वाला सेंस। जबकि ज्ञान अन्त:प्रेरणा से प्राप्त होता है। ज्ञान आगे ले जाता है। बढऩे में सहायक होता है। जबकि अनुभव समय निकलने के बाद पैदा होता है। अत: वह आगे बढऩे में सहायक नहीं होता। जबकि ज्ञान आगे बढऩे की दिशा और दृष्टि बताता है।
एक आदमी को दाल पकाते-पकाते यह दिखा कि भाप के तपेले से ढक्कन उठ रहा है। यह अनुभव है। विज्ञान होता तो भाप की शक्ति का ज्ञान पूर्व में ही ज्ञात होता। लेबोरेटरी में जितने प्रयोग होते हैं वह अनुभव है..वह विज्ञान नहीं। विज्ञान तो दृष्टि है। जैसे हमारे ऋषियों ने विज्ञान दृष्टि के सहारे तारों का ज्ञान कर लिया। विरलता..सघनता और पिण्डों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। ऋतुओं का ज्ञान, पंचमहाभूतों का ज्ञान यह सब विज्ञान है। विज्ञान का आधार परिकल्पना है। यह प्रयोग के सहारे चलती है। यह असफल भी हो जाती है। यही कारण है कि आज विज्ञान के सिद्धांत बदलते रहते हैं। आज के विज्ञान को पदार्थ विद्या कह सकते हैं पर विज्ञान नहीं। यह पदार्थ विद्या विज्ञान का क्षुद्र अंश है। अनुभव कर्मजनित होता है और कर्म परिवर्तनशील होते हैं। अत: अनुभव भी परिवर्तनशील है। ज्ञान परिवर्तनशील नहीं है। विज्ञान कभी बदल नहीं सकता। दुनिया को भरमा रखा है इस विज्ञान नाम की चीज नेे। पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है।
गुरु ने कराया नाम कपूर से कर्पूर

मा लपुरा में संयोगवश मुझे ऐसे गुरु मिले जिन्होंने मेरे व्यक्तित्व में… मेरे जीवन में…अनोखा परिवर्तन ला दिया। बजरंग प्रसाद पारीक नाम था उनका। निवासी तो डिग्गी के थे पर नौकरी मिडिल स्कूल मालपुरा में होने के कारण मालपुरा निवासी हो गए थे। नि:शुल्क विद्यादान उनका संकल्प था..आसपास के बच्चों को इक_ा करके पढ़ाने के उनके अभियान में मैं भी शामिल हो गया। नि:शुल्क विद्यादान करने की यह उनकी उज्ज्वल दृष्टि अनुपम थी। शुरू में तो तीन-चार बच्चे पढऩे आते थे। बाद में तो अकेला मैं ही रह गया। गुरुजी सिर्फ पढ़ाते ही नहीं थे..व्यक्तित्व विकास के हर पृष्ठ पर ध्यान देते थे। वाकई गुरु जिसे कहते हैं- ज्ञान देने वाला, उसकी साक्षात प्रतिमूर्ति थे। मेरी भाषा संबंधी अशुद्धियों को उन्होंने घोट-घोट कर सुुधरवाया। मैं पहले मेरा नाम कपूर लिखता था। मास्टर जी ने ही इसमें संशोधन करवाते हुए कपूर से ‘कर्पूर’ करवाया। तभी से मेरा नाम कपूर से कर्पूर हो गया। मास्टरजी ने ही हिन्दी का सारा इतिहास…महाकवियों के ग्रंथों का मुझे पारायण करवाया। दूसरों की लिखी कविताओं की अंत्याक्षरी प्रतियोगिता आयोजित की जाती थी। मुझे खूब सारी कविताएं याद होती थीं। अत: मैं बढ़-चढक़र हिस्सा लेने लगा। समस्या देकर पूर्ति करवाना भाषा सुधार का उस समय प्रचलित तरीका था। समस्या दे देते थे, और कहा जाता था कि इन पर कविताएं लिखो।
(कुलिश जी की आत्मकथ्य आधारित पुस्तक ‘धाराप्रवाह’ से )
पुरानी शिक्षा पद्धति का स्वरूप

पु रानी शिक्षा पद्धति का स्वरूप यह था कि शिक्षक अपने घर पर ही शाला चलाता था। विद्यार्थी वहीं पढऩे जाते थे। शिक्षक के योग-क्षेम की व्यवस्था अपनी मर्जी से बच्चों के मां-बाप करते थे। प्रत्येक मास की प्रतिपदा (पड़वा)को सीधा-पेट्या (भोजन सामग्री)अवश्य नियमपूर्वक जोशी (शिक्षक) के घर पहुंचा दी जाती थी। गुरु पूर्णिमा और अन्य पर्वों पर गुरुजी का विशेष ध्यान रखा जाता था। समय बहुत कुछ बदल गया है और हमारी शैक्षणिक आवश्यकताएं भी बदल गईं। आज भी हम उस प्रणाली का उपयोग क्यों नहीं करते?
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से )

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