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एकात्म मानवदर्शन, सुशासन का देशज दर्शन

स्वतंत्र भारत अपने अमृतकाल के द्वार पर खड़ा है और बाकी दुनिया दुविधा के दोराहे पर। ऐसे में प्रकृति-सम्मत समग्र चिंतन का उपासक भारत, सतत् विकास का रोल मॉडल बन कर उभर रहा है।

जयपुरFeb 10, 2025 / 07:52 pm

Kamlesh Sharma

Deendayal Upadhyaya
महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री मंगल प्रभात लोढ़ा
 
स्वतंत्र भारत अपने अमृतकाल के द्वार पर खड़ा है और बाकी दुनिया दुविधा के दोराहे पर। ऐसे में प्रकृति-सम्मत समग्र चिंतन का उपासक भारत, सतत् विकास का रोल मॉडल बन कर उभर रहा है। जबकि प्रकृति को शोषण का स्रोत मानने वाली पश्चिमी सभ्यता बगलें झांक रही है। साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद जैसे तंत्रों में उलझी व्यवस्थाएं या तो ध्वस्त होने लगी हैं या फिर आंतरिक व बाहरी द्वंद्वों में फंसने लगी हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत के सामने भी ऐसी ही कुछ दुविधा थी। अपने तत्कालीन शासकों को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल विकास का रास्ता नहीं सूझ रहा था। वे इन तीनों ‘वादों’ के बीच झूल रहे थे।
उसी समय इस महान देश के क्षितिज पर उदय हुआ एक ऐसे चिंतक व विचारक का जिसने देश को दिया एक कालजयी चिंतन। इसे दुनिया ने जाना ‘एकात्म मानवदर्शन’ के नाम से। इसके प्रवर्तक थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और जनसंघ के संस्थापकों में से एक। हालांकि उन्होंने बार-बार यह दोहराया था कि उन्होंने इस चिंतन का सृजन नहीं किया। यह चिंतन तो भारत की ज्ञान परंपराओं में से ही उपजा है। सनातन है, इसलिए आज भी यह उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। 11 फरवरी को उनकी 57वीं पुण्यतिथि पर हम उस आधुनिक मनीषी का स्मरण कर रहे हैं।
पंडित जी ने अपने छोटे से जीवनकाल में देश व दुनिया को एकात्म मानववाद का ऐसा सूत्र दिया जो आज पूरे विश्व में सर्वमान्य हो गया है। यह सूत्र था मनुष्य को टुकड़ों में बांटकर नहीं, उसे संपूर्ण मानव के रूप में देखना। उसके शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा का समग्र चिंतन करना। संपूर्ण ब्रह्मांड को एकात्म भाव से देखना। सभी पंचभूतों-आकाश, धरती, जल, वायु, अग्नि, सबके संबंधों का सामंजस्यपूर्ण भाव से विचार करना तथा उसी अनुरूप व्यवहार करना।
प्रकृति के प्रति सम्मान का भाव रखना तथा उसका संवर्धन करना। हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने पंडित जी को या उनके द्वारा प्रतिपादित दर्शन को इसका श्रेय नहीं दिया, लेकिन यह सच है कि 25 सितंबर 2015 को यूएन द्वारा पारित सभी 17 सतत् विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलेपमेंट गोल्स) एकात्म मानवदर्शन की छवि मात्र हैं। संयोग से उसी दिन पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म शताब्दी वर्ष प्रारंभ हो रहा था।
आगे चलकर यह सूत्र एकात्म मानवदर्शन के नाम से प्रचलित हुआ। इसके केंद्र में था मानव। पंडित जी का मानना था कि जिस तरह मनुष्य की आत्मा होती है, उसी तरह देश की भी आत्मा होती है। उसे उन्होंने राष्ट्र की चिति कहा। वे मानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। गांववासी ही देश की चिति का सही प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए देश का विकास करना है तो गांवों का सर्वांगीण विकास करना होगा।
दीनदयाल जी के इस ध्येय वाक्य का अनुसरण करने के लिए और उसे साकार करने के लिए उनके सखा व सहचर नानाजी देशमुख ने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। डीआरआई के नाम से पहचाना जाने वाला संस्थान समग्र ग्राम विकास के ऐसे मॉडल प्रस्तुत कर रहा है जिनका देशभर में अनुसरण किया जा सकता है। गोंडा, बीड और चित्रकूट में चल रहे विभिन्न प्रकल्पों के माध्यम से हो रहे प्रयोगों व भारत के देशज ज्ञान को संकंलित करने के प्रयासों के परिणामस्वरूप नानाजी को 2019 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
जिस समय उन्होंने यह चिंतन लिपिबद्ध किया उस समय वे सक्रिय राजनीति में थे। और देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल जनसंघ के संगठनात्मक व वैचारिक मुखिया भी थे। 1952 में जनसंघ की स्थापना के समय से ही वे उसके संगठन महामंत्री बने और 15 वर्ष तक उसकी संगठनात्मक नींव को मज़बूत करने के पश्चात दिसंबर 1967 में पार्टी के अध्यक्ष बने।
इस डेढ़ दशक में भारत के राजनीतिक क्षितिज पर जनसंघ की उत्तरोत्तर विस्तार की कहानी अद्भुत है। लेकिन 51 वर्ष की अल्पायु में रहस्यमयी परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। बहुमुखी और बहुविधा दक्ष पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने देश की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संदर्भों में इतना गंभीर व गहन अध्ययन किया कि उस समय के विशेषज्ञ और राजनीतिक पंडित भी चौंक गए थे।
अप्रतिम विचारक व चिंतक पंडितजी अपने व्याख्यानों से भारत के आमजन की आत्मा को हमेशा झकझोरते थे। वे कहते थे, स्वाभिमानी बनो। कैसे? अपने पुरुषार्थ से। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में निपुण बनकर। मन, बुद्धि, आत्मा, शरीर का संतुलन रखकर। अपनी ताकत पर भरोसा रखकर। उनका बार-बार कहना था कि हम अपनी सांस्कृतिक जड़ों से तो जुड़े रहें, मजबूती से जुड़े रहें, लेकिन स्वयं जड़ न हो जाएं। हमेशा चैतन्य रहें। अपने इस विचार को उन्होंने रेखांकित किया दो शब्दों के माध्यम से -देशानुकूल व युगानुकूल। आज दुनिया की सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश का समाज अपनी खोई हुई सभ्यतागत विशिष्टताओं को पुन: पाने के लिए प्रयासरत है।
वह अपने इतिहास, संस्कृति, परंपराओं और अपनी गौरवशाली विरासत का स्मरण कराने वाली स्मृति से बहुत अधिक प्रेरित है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने उत्थान, विकास आदि के मापदंड स्वयं तय करें। दीनदयाल जी कहते थे कि अंतरराष्ट्रीय संगठन और विदेशी एजेंसियां कौन होती हैं जो हमें बताएं कि हम विकसित हैं या नहीं, पढ़े-लिखे हैं या अनपढ़ हैं, स्वस्थ या अस्वस्थ हैं? उन्होंने कहा था कि हमें अपना विकास मॉडल खड़ा करने के लिए अपने ही मापदंड गढ़ने होंगे, नहीं तो वे लोग अपना एजेंडा हम पर थोपते रहेंगे. ऐसा हमने सच होते हुए देखा है।
 
इसी एकात्म मानवदर्शन को अपनी प्रेरणा मानते हुए वर्तमान सरकार अंत्योदय जैसे सिद्धांतो पर चल रही है। केंद्र तथा अधिकांश राज्य सरकारों के चिंतन, नीतियों, कार्यक्रमों व कार्यशैली में पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित समग्र चिंतन की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। समाज के कमज़ोर वर्गों के लिए कल्याणकारी नीतियों से लेकर आधुनिक तकनीक, रक्षा के क्षेत्र में स्वावलंबन, अंतरिक्ष में अपने कौशल का प्रदर्शन, ये सब उन्हीं के दिए संस्कारों की देन है। पंडित जी के विचारों से पोषित राजनीतिक व्यवस्था का ही परिणाम है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम अब लुंज-पुंज देश नहीं, एक शक्तिशाली ताकत के रूप में देखे जाते हैं। स्वाभिमानी हो गए हैं। और तेजी से स्वावलंबन की ओर बढ़ रहे हैं।

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