फसल लगाने पर हर्जाने का प्रावधान भी है। फसल को प्रतिबंधित करने के पीछे की मंशा गिरते भूजल स्तर को रोकना है। साठा धान भूजल को कितना नुकसान पहुंचाता है, जिसको लेकर विगत वर्षों में कुछ राज्य की सरकारों ने केंद्र सरकार के जरिए केंद्रीय वैज्ञानिकों से रायशुमारी की। उसके बाद वैज्ञानिकों की टीमों ने साठा धान का सैंपल लेकर जांच-पड़तालें की, जिसमें पाया कि वास्तव में ये फसल जमीन के पानी के लिए बहुत नुकसानदायक है। नेपाल सीमा से जितना क्षेत्र सटा है, उसे तराई कहते हैं, वहां ये फसल अभी भी बड़े स्तर पर प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से की जाती हैं। ऐसी हरकतों को सरकार ने पकड़ा है। जाहिर है प्रतिबंध में बिना प्रशासनिक सहयोग के किसान साठा धान नहीं उगा सकते। दरअसल, ये फसल मात्र 60 दिनों में तैयार हो जाती है, तभी इसे ‘साठा’ कहते हैं। जबकि, सामान्य धान की फसल 5 माह से अधिक में तैयार होती हैं।
साठा धान की जब वैज्ञानिकों ने कृषि प्रयोगशालाओं में जांच कराई, तो पता चला कि फसल जमीन की नमी को कितना सोखती हैं। यों कहें कि ये फसल धरती की कोख को सुखाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। रिपोर्ट के बाद ही राज्य सरकारों ने आनन-फानन में प्रतिबंध का निर्णय लिया। एक वक्त था जब पंजाब में चैनी की फसल बड़े स्तर पर की जाती थी, अब रोक है। लेकिन, उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में साठा धान की फसल अभी भी उगती है। तराई क्षेत्र नमी युक्त फसलों के लिए उपजाऊ भूमि मानी जाती है। भूमिगत जलस्तर अच्छा होने से धान के पैदावार वहां अच्छी होती है। ऐसा भी नहीं है कि किसान इसके दुष्प्रभावों से अनजान और बेखबर हो, वे अच्छे से जानते हैं कि धरती की कोख को सुखाने में साठा धान की कितनी भूमिका है, लेकिन मुनाफे की लालच में किसान धरा के साथ खिलवाड़ करते जा रहे हैं। तराई क्षेत्र इस समय साठा धान के लिए कुख्यात है। सख्ती के बाद भी वहां रोक नहीं लग पा रही। फसल अधिकांश इन्हीं गर्मी के दिनों में अप्रैल-मई-जून माह में उगाई जाती है।
इस फसल ने कई जगहों को बंजर बना डाला है। प्राकृतिक वातावरण व पर्यावरण रक्षा को ध्यान में रखकर उठाए गए सरकार के निर्णय को पर्यावरणविद् सराह रहे हैं, क्योंकि वह खुद कई वर्षों से रोक की मांग बुलंद किए हुए थे। तराई क्षेत्र को चावल का कटोरा कहते हैं। लेकिन फसल की चाह में लोग मानवीय हिमाकतें कर प्रकृति के साथ खुलेआम खिलवाड़ कर रहे हैं। केंद्र सरकार के जल संरक्षण के तमाम प्रयासों पर भी ये फसल कालिख पोतती है। जल संचय मानव जीवन का आधार है, जब पानी ही नहीं होगा, मानव जीवन कैसे संभव होगा?
फसल उगाने में लोग दिलचस्पी इसलिए दिखाते हैं कि परंपरागत फसलों के मुकाबले इसमें आमदनी दोगुनी होती है। लेकिन लालच में वह जल का कितना दोहन कर रहे हैं, जिसका उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं? अमूमन अप्रैल से जून तक जमीन खाली होती हैं। किसान सोचते हैं क्यों न साठा धान ही लगा दिया जाए। फसल 60 दिन में तैयार होगी और बाजार भाव भी अच्छा मिलेगा। कनाडा में साठा धान कभी उगाया जाता था, लेकिन अब वहां प्रतिबंधित है। नेपाल से सटे तराई क्षेत्र का भूजल स्तर पूरे देश से ज्यादा है। मात्र पंद्रह फीट नीचे पानी निकल आता है। उस पानी का दोहन भी युद्धस्तर पर जारी है। धरती की नमी का फायदा फसल माफिया उठा रहे हैं। तराई का क्षेत्रफल हजारों हेक्टर में फैला है, कुछ हिस्सा उत्तराखंड में है, वहां भी साठा धान लगता है। जबकि, उत्तराखंड भी गर्मियों में पानी के लिए तरसने लगा है। केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक तराई का पानी पहले के मुकाबले काफी सूख चुका है। चैनी धान की फसल के चलते वहां की मिट्टी और पानी का संतुलन बिगड़ा है। अनजाने में ही सही मगर भूजल का दोहन करके देश को मुसीबत में डालने की समस्या को तुरंत रोका जाना चाहिए।