ह म आश्रम व्यवस्था पर विचार करें तो आश्रम का मोटेे तौर पर अर्थ है- सबके लिए श्रम करना, सबके लिए कर्म करना, सबके लिए जीना, सबके साथ जीना या समष्टि का अंग बनकर जीवन बिताना। आश्रम एक जीवन-दृष्टि है, जीवन शैली है। ‘आ’ का अर्थ है सर्वत्र, सर्वव्यापक आदि। श्रम का अर्थ है कर्म। इस तरह व्याकरण के हिसाब से तो साफ-साफ अर्थ है- सबके लिए श्रम करना, सबके लिए कर्म करना और सबके लिए जीना। आश्रम का निर्वाचन इस प्रकार है- ‘आसमन्ताच्छमोऽत्र’ अर्थात सदैव श्रमयुक्त तप करना। हमने अपनी आश्रम व्यवस्था को नितांत भुला दिया है। आश्रम को हमने आश्रम बना दिया है, जिसका तस्वीरों में झौंपड़ा देखने में आता है। जैसा कि मैंने ऊपर कहा- आश्रम का अर्थ है सबके लिए श्रम करना। अपने लिए श्रम या कर्म करना श्रम है, परिजनों या मित्रों के लिए करना परिश्रम है, सबके लिए श्रम करना ही आश्रम का स्वरूप है, झौंपड़ा नहीं। दूसरी और हमारी दिनचर्या यांत्रिक और औषधि प्रधान बनकर नीरस बनती जा रही है। अल्हाद का रूप उन्माद और वेग ने ले लिया है। वानप्रस्थ आश्रम को तो हमने निवृत्तिमूलक बना लिया है। वानप्रस्थ का अर्थ है वन में प्रस्थान कर जाना। वानप्रस्थ का मुख्य भाव तो यह है कि मनुष्य अपने सीमित परिवार से बढक़र जीव-जंतु,पशु-पक्षियों, नदी-पर्वतों एवं वृक्ष-वनस्पति के विस्तृत परिवार से जुड़ जाए। घर-परिवार में रहते हुए भी हम प्राणियों और वनस्पतियों के साथ एक विशेष नाता रखते हैं। गाय को माता, बिल्ली को मौसी, चन्दा को मामा और न जाने कितने पदार्थों से कितने ही नाते रखते हैं। वानप्रस्थ जीवन में पूर्णत: इन्हीं को अपना परिवार बना लेते हैं। यह एकांत आश्रम भी है जबकि आप अपने निकटतम रिश्तेदार होते हैं और अधिक से अधिक समय अपने लिए निकाल सकते हैं। वन को उद्भिज सृष्टि कहा गया है, जिसमें प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में प्रस्तुत होती है। उद्भिज मानव कृत बाग-बगीचे नहीं है, ईश्वर की अपनी छवि है जो प्रकृति के माध्यम से हमें प्राप्त होती है। प्रकृति ही हमारे भरण-पोषण की सामग्री भी प्रदान कर देती है।
(22 मार्च 1995 को ‘सबके लिए जीना ही आश्रम है, झौंपड़ा नहीं’ आलेख से) प्यासे मानव और पशु मैं अपनी कलम से प्यासे मानव और पशु की अंतर्वेदना को प्रकट नहीं कर सकता। मेरी तरह से घूम-फिरकर चले जाने वाले मुसाफिर उस दर्द को महसूस नहीं कर सकते। मुझे इतनी तसल्ली है कि देश की आजादी के बहुत बाद ही सही, पीने के पानी की फिक्र हमारे योजनाकारों को या सरकार को हुई है। पानी के प्रयत्नों का जिक्र करते समय इस काम में तात्कालिक कठिनाइयों का जिक्र करना असंगत नहीं होगा। मजदूरों की भर्ती रोजगार कार्यालय में नाम लिखवाने के बाद ही हो रही है। दूसरी यह कि गांव के लोग कौतुकवश पानी लेने के लिए लाइनों को तोड़ देते हैं।
( यात्रा वृत्तांत आधारित पुस्तक ‘मैं देखता चला गया’ से )
भौतिक आवश्यकताओं की सीमा बनाएं मैं लिखता और बोलता रहता हूं कि प्रकृति के अनुकूल रहकर जीवन व्यतीत करना एवं संतुलन बनाए रखना ही सुख का मूल है। इस संतुलन को बनाए रखने के लिए ही हमारे ऋषियों ने पुरुषार्थ चतुष्टय की व्यवस्था हमें दी है। हमें संपदा या भौतिक पदार्थ चाहिए, हमें संतान चाहिए, यश चाहिए। पर बुद्धि हमें समझाती है कि अपनी भौतिक आवश्यकताओं की एक सीमा बना लेें और यह देखें कि हमारा सम्पदा भोग दूसरे की सम्पदा का अपहरण नहीं करे। हम जो कुछ प्राप्त करके सुख प्राप्त करना चाहते हैं, वैसा ही सुख दूसरे सभी पाना चाहते हैं। संसार में जो विषमता और तनाव बना हुआ है वह भूख मात्र के कारण नहीं बल्कि अधिक से अधिक उपभोग के कारण है। पंच महाभूतों से उत्पन्न सृष्टि में हम प्रकृति का दोहन कर जो कुछ प्राप्त कर रहे हैं उसके लिए प्रकृति को हम प्रतिदान के रूप में कुछ नहीं देते। कोई भी एकांगी जीवन शैली जो प्रकृति के विरुद्ध जन्म लेगी सुखकर नहीं होगी।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से )