इस लिहाज से हाल ही प्रकाशित ब्रूनो माकाइस की ‘वल्र्ड बिल्डर्स: टेक्नोलॉजी एंड न्यू जियोपॉलिटिक्स’ एक अत्यंत प्रासंगिक और विचारोत्तेजक कृति के रूप में सामने आती है। कभी-कभी कोई पुस्तक मात्र विचार नहीं देती, वह एक रोचक एवं नवीन दृष्टि भी प्रदान करती है। माकाइस का शानदार लेखन पाठक को एक सामान्य राजनीतिक विमर्श से कहीं आगे ले जाता है। पुस्तक का आरंभ ही एक बौद्धिक चुनौती के रूप में हमारे समक्ष आता है। माकाइस के अनुसार अब दौड़ दुनिया को जीतने की नहीं, उसे गढऩे की है। यह उद्घोष-शक्ति अथवा सत्ता की परम्परागत परिभाषा के मौलिक रूपांतरण का संकेत है। सदियों से जो सत्ता सीमाओं, सेनाओं और संधियों के बीच सिमटी थी, अब बिट्स और एल्गोरिदम के नए आकाश में उड़ान भर रही है।
इसमें निहित भाव यह है कि आज की भू-राजनीति एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक कल्पना बन गई है, जहां शक्ति वही है जो ‘वास्तविकता’ को परिभाषित करे। फिर चाहे वह डिजिटल प्लेटफॉर्म हों, कृत्रिम बुद्धिमत्ता की नैतिक सीमाएं हों या मेटावर्स के आभासी क्षेत्र। माकाइस ने आधुनिक समय के चार महत्त्वपूर्ण भू-राजनीतिक क्षणों की पहचान की है। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रतिस्पर्धा दुनिया को मापने और नियंत्रित करने को लेकर थी। मानचित्रों पर सीमाएं बनती-बिगड़ती थीं। दूसरा दौर परमाणु हथियारों के आविष्कार का था, जिससे मानवता सर्वशक्तिमान और अशक्त दोनों बन गई।
21वीं शताब्दी में चीन का उदय हुआ, जिससे एक अलग सांस्कृतिक और विकास मॉडल की खोज शुरू हुई। लेखक बताते हैं कि किस प्रकार पश्चिमी लोकतंत्रों के बरक्स एक वैकल्पिक सभ्यतागत ढांचे ने अपना सिर उठाया। फिर अचानक कथा एक नाटकीय मोड़ लेती है और पाठक वर्तमान की डिजिटल दुनिया में प्रवेश करता है – एक ऐसा युग जहां एटम नहीं, बिट्स शक्ति के वाहक हैं। लेखक स्पष्ट करते हैं कि अब शक्ति का स्वरूप बदल चुका है। मिसाइलों की जगह माइक्रोचिप्स ने ले ली है।
मेटावर्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम टेक्नोलॉजी फंतासी नहीं रह गई, अब ये सब भविष्य की कूटनीति के हथियार बन चुके हैं। जो राष्ट्र सर्वश्रेष्ठ वर्चुअल वास्तविकता गढ़ेगा, वही वैश्विक विजेता होगा। माकाइस तकनीक को सत्ता के नए व्याकरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अब वैश्विक शक्ति केवल हथियारों से नहीं, बल्कि प्रोटोकॉल, मानकों और डिजिटल प्लेटफॉर्म के निर्माण से निर्धारित होती है। माकाइस बताते हैं कि अमरीका और चीन के बीच जो प्रतिस्पर्धा चल रही है, वह पारंपरिक युद्ध नहीं, बल्कि तकनीकी मानकों की अदृश्य जंग है। यह संघर्ष वर्चुअल जगत में नए नियम गढऩे का है, जिसकी प्रतिध्वनि वास्तविक जगत में सुनाई देती है। राष्ट्र अब सीमाओं से परे, डिजिटल प्रभुत्व की होड़ में लगे हैं। जो देश या कंपनियां मेटावर्स और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के नियम गढ़ेंगी, वही भविष्य की शक्ति-संरचना तय करेंगी। जैसे-जैसे पृष्ठ आगे बढ़ते हैं, पाठक अनायास ही स्वयं से यह सवाल करने लगता है – क्या हम एक ऐसे भविष्य की ओर अग्रसर हैं जो ‘साइबर यूटोपिया’ का स्वप्न है, या फिर यह मार्ग ‘डिजिटल तानाशाही’ की अंधी गली में जा रहा है? पुस्तक के हर अध्याय में यह बोध गहराता है कि हम एक ऐसे संक्रमणकाल की दहलीज पर खड़े हैं, जहां राष्ट्रीय संप्रभुता का रूपांतरण डिजिटल संरचनाओं में हो रहा है। आज वही राष्ट्र वास्तविक अर्थों में वैश्विक निर्माता बन रहे हैं, जो डेटा को अपने नियंत्रण में रखने में सक्षम हैं।
(ट्रंप का टैरिफ वॉर : सीरीज 5)