याचिका में कहा गया है कि ऐसा करने से ‘नोटा’ विकल्प के मौलिक अधिकार का हनन होता है। देखा जाए तो यह मामला लोकतंत्र की आत्मा से जुड़ा है क्योंकि निर्विरोध निर्वाचन की वर्तमान व्यवस्था में मतदाता की भूमिका शून्य हो जाती है। जब नोटा का विकल्प है तो उस एक मात्र उम्मीदवार को भी खारिज करने की मांग तार्किक हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट का 2013 का ऐतिहासिक निर्णय यह स्पष्ट कर चुका है कि ‘नोटा’ संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत संरक्षित अधिकार है। ऐसे में यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में मात्र एक ही उम्मीदवार हो और ‘नोटा’ का विकल्प उपलब्ध हो तो निर्वाचन आयोग को चुनाव कराना चाहिए और यदि ‘नोटा’ को अधिक वोट मिलते हैं, तो दोबारा चुनाव करवाने की व्यवस्था होनी चाहिए।
निर्विरोध होने वाले निर्वाचनों पर नजर डालें तो अब तक देश में 258 लोकसभा और विधानसभा सीटों पर ऐसा हो चुका है। इसे लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणाओं के विपरीत ही कहा जाना चाहिए। फिलहाल तो ‘नोटा’ का अधिकार नखदंतविहीन ही है। उम्मीदवारों में सर्वाधिक मत होने के बावजूद ये सिर्फ गिनती के ही काम आता है। इस बहस के बीच सुप्रीम कोर्ट का निर्णय महत्त्वपूर्ण होगा, जिसमें यह तय होगा कि लोकतंत्र में वास्तविक भागीदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए ‘नोटा’ का सही उपयोग कैसे किया जा सकता है। निश्चित ही सुप्रीम कोर्ट पर सबकी नजर रहने वाली है। लेकिन इतना तय है कि मतदाता के अधिकार की रक्षा हर हालत में होनी चाहिए।