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माता-पिता को बनना होगा बच्चों की ऑनलाइन दुनिया का पहरेदार

अपर्णा पिरामल राजे एवं मेघा मावंडिया

जयपुरMay 21, 2025 / 01:19 pm

Neeru Yadav

सोशल मीडिया से बच्चों और किशोरों का संबंध आज अभिभावकों के लिए सबसे अधिक चिंता का विषय बन चुका है। यह उन शीर्ष पांच मुद्दों में से एक है, जिन्हें माता-पिता क्लिनिक में, आपसी बातचीत में और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मंचों पर उठाते रहते हैं। माता-पिता तेजी से इस बात को लेकर जागरूक हो रहे हैं कि जब बच्चे ऑनलाइन दुनिया में डूबे होते हैं, तब वे असल जिंदगी से कितने कट जाते हैं, और फिर अभिभावकों को उन्हें इससे छुटकारा दिलवाने के लिए कैसा संघर्ष करना पड़ता है। अमरीका-स्थित एनजीओ सैपियन लैब्स की एक नई रिपोर्ट से यह पुष्टि हुई है कि माता-पिता की यह शंका सच है कि बच्चे के हाथ में पहली बार स्मार्टफोन या टैबलेट आने की उम्र और बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य के बीच सीधा संबंध है। जितनी कम उम्र में बच्चा यह उपकरण प्राप्त करता है, उसके मानसिक स्वास्थ्य में उतनी ही अधिक समस्याएं देखने को मिलती हैं।
इस अध्ययन में बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य के सभी पहलुओं—आत्महत्या के विचार, दूसरों के प्रति आक्रामकता की भावना, वास्तविकता से अलग-थलग महसूस करना और मतिभ्रम पर विचार किया गया है। अध्ययन बताता है कि यदि स्मार्टफोन देर से दिया जाए तो इन समस्याओं में कमी आती है। लड़कियों और लडक़ों के आंकड़ों में अंतर चौंकाने वाला है। यदि किसी लडक़ी को छह साल की उम्र में स्मार्टफोन मिल गया तो 74 प्रतिशत मामलों में मानसिक समस्याएं देखी गईं। लेकिन अगर यही 18 साल की उम्र में दिया गया तो आंकड़ा घटकर 46 प्रतिशत रह गया। हालांकि यह अब भी बहुत अधिक है। लडक़ों में यह आंकड़ा 42 प्रतिशत से घटकर 36 प्रतिशत रहा। इसके पीछे कारण यह है कि लड़कियां सामाजिक स्वीकार्यता का दबाव लडक़ों की तुलना में अधिक महसूस करती हैं, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
हमारा मानना हैं कि बच्चे को स्मार्टफोन देना वैसा ही है, जैसे बिना ड्राइविंग लाइसेंस के किसी अनाड़ी बच्चे को तेज रफ्तार लैम्बॉर्गिनी थमा दी जाए। ऑनलाइन दुनिया में नेवीगेशन भी एक कौशल है, जो समय के साथ विकसित होता है। यह कौशल मस्तिष्क के विकास के कारण 20 की उम्र हो जाने पर ही पूरी तरह विकसित होता है। जब हम वयस्क ही इंस्टाग्राम ‘रील्स’ देखने के समय को कम करने के लिए जूझते हैं तो एक बढ़ते हुए मस्तिष्क वाले बच्चे के लिए यह कितना मुश्किल होगा, इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं। इसलिए हम तीन सरल उपाय दे रहे हैं, जिनकी मदद से माता-पिता बच्चों को स्मार्टफोन देने में विलंब कर सकते हैं या उसके उपयोग को सीमित कर सकते हैं- पहला, सामूहिक देरी। सबसे आदर्श और प्रभावी उपाय है-बच्चों की सामाजिक मंडली में अन्य माता-पिता के साथ मिलकर यह तय करना कि स्मार्टफोन या सोशल मीडिया का प्रयोग कितनी देर में शुरू किया जाए। सोशल मीडिया किशोरों के लिए स्वीकृति पाने का एक सशक्त मंच है और यदि कोई माता-पिता अकेले अपने बच्चे को इससे दूर रखते हैं तो वह बच्चा खुद को अलग-थलग महसूस कर सकता है। अमरीका में चल रहा ‘आठवीं तक इंतजार करो’ नामक अभियान इसी तरह का एक सामूहिक प्रयास है, जिसमें माता-पिता आठवीं कक्षा तक स्मार्टफोन से बच्चों को दूर रखने का संकल्प लेते हैं।
दूसरा, पारिवारिक तकनीकी समझौता। बच्चों को भी बातचीत में शामिल करना आवश्यक है, क्योंकि हर सामाजिक समूह में सोशल मीडिया की प्रासंगिकता अलग होती है। समझौते में यह तय किया जा सकता है कि दिन में कितनी देर और किस समय फोन का प्रयोग होगा, कौन-कौन से प्लेटफॉर्म स्वीकृत होंगे और किस जिम्मेदारी के बदले उन्हें यह अधिकार मिलेगा। बच्चे अक्सर सोशल मीडिया को अपना अधिकार समझते हैं, लेकिन अधिकार जिम्मेदारी के साथ ही सार्थक होते हैं। जैसे मतदान का अधिकार लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेदारी के साथ आता है, वैसे ही सोशल मीडिया का इस्तेमाल सामाजिक जीवन की जिम्मेदारियों के साथ जुड़ा होना चाहिए। बच्चों को घर में छोटे-मोटे काम देना उनमें जिम्मेदारी की भावना पैदा करता है और उन्हें आभासी दुनिया से पहले वास्तविक जीवन के कार्यों से जोड़ता है। जिम्मेदारियों के बिना अधिकार देना गैर-जिम्मेदार विशेषाधिकार है। यह समझौता लचीला और बदलती परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए-हर बच्चे के लिए अलग और स्कूल व छुट्टियों के समय अलग।
अंत में, स्वस्थ आदतों का उदाहरण और विकल्प देना। बच्चे स्मार्टफोन की आसानी से उपलब्धता और अपने आसपास वयस्कों को लगातार फोन का इस्तेमाल करते हुए उसकी ओर आकर्षित होते हैं। माता-पिता स्वयं डिजिटल सीमाओं का पालन करें और बच्चों को वैकल्पिक मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराएं, जैसे—फैमिली गेम नाइट, पार्क में खेल या ऑनलाइन गेम्स का भौतिक रूप। हाल ही में एक जन्मदिन की पार्टी में 13 साल के बच्चों ने माइनक्राफ्ट के बेड वॉर्स का एक भौतिक संस्करण प्लास्टिक की तलवारों, ढेर सारी हंसी और पसीने के साथ खेला! अनुभवों से सामने आया है कि जब बच्चे वास्तविक दुनिया में व्यस्त होते हैं तो उन्हें ऑनलाइन दुनिया की याद नहीं आती। संयुक्त राज्य अमरीका में नो-टेक कैंपों ने साबित किया है कि बच्चे डिजिटल उपकरणों के बिना भी मौज-मस्ती कर सकते हैं। ऐसे बच्चे, जो खेल और शौक में लगे रहते हैं, वे फोन का उपयोग केवल एक उपकरण की तरह करते हैं, न कि उसे जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं। हम कई प्रभावी तरीकों से अपने बच्चों की ऑनलाइन दुनिया तक पहुंच के पहरेदार बन सकते हैं। हमें अपने बच्चों के साथ अधिक संवाद और जुड़ाव रखना होगा, ताकि वे ऑनलाइन दुनिया में खो न जाएं, यह माता-पिता के रूप में हमारा विशेषाधिकार है। 

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