सृष्टिकाल में ब्रह्म अकेला है- ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’। तब सृष्टि कैसे हो। ब्रह्म ने कामना की- ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ और मानसी सृष्टि उत्पन्न हुई। वे भी स्त्रैण के अभाव में आगे सृष्टि को विस्तार नहीं दे पाये। स्वयंभू ब्रह्मा कहने को तो सृष्टि से पूर्व भी थे- प्रथम सत्य स्वरूप अव्यक्त थे। उनको भी व्यक्त रूप में आने के लिए युगल तत्त्व की आवश्यकता पड़ी। यज्ञ तभी सम्पन्न हो सकता है।
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत् तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥ अर्थात्- कोई एक ऐसा विलक्षण तत्त्व कम्परहित है। मन से भी अधिक वेग वाला है। पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है। उसे देवता लोग प्राप्त करने में असमर्थ है। वह दौड़ते हुए देवताओं का स्वयं बैठा-बैठा अतिक्रमण कर रहा है। इस तत्त्व में मातरिश्वा वायु अप् नाम के पदार्थ को रखता है। अप् का आधान (आहिति/आहुति) करता है। एक आलम्बन पर दूसरी वस्तु का रखा जाना आहिति है। आहुत होने वाला पदार्थ आहुति कहलाता है।
अप् का अर्थ है कर्म और मातरिश्वा है सूत्रवायु। सूत्रवायु उस अनेजदेजत् (परमात्म तत्त्व) में कर्म का आधान करता है। अप् आहुति द्रव्य है। मातरिश्वा द्वारा अप् की आहुति से वह अव्यय पुरुष यज्ञ पुरुष बन जाता है। यज्ञ का पहला मूल आपोमयी परमेष्ठी है। अप् से ही यज्ञ होता है। परमेष्ठी का अप् प्राणमय वेद से उत्पन्न होता है। स्वयंभू का प्राण ही वेद (ब्रह्म निश्वसित) है। ‘सोऽपोऽसृजत वाच एव लोकात्’। इसी वेद वाक् से पानी उत्पन्न होता है। अप् का मातरिश्वा द्वारा अव्यय ब्रह्म पर आधान होता है। अत: अव्यय ब्रह्म वेदमय ही है।
योषा रयि है, वृषा प्राण है। ऋक् साम (वयोनाध) से सीमित यजु: (वय) वृषा रूप है, आग्नेय है। एकल प्राण से सृष्टि नहीं होती। योषा नाम का अप् तत्त्व (रयि) अनिवार्य है। सृष्टि कामना से प्राण क्षुब्ध हो जाता है जो फलपर्यन्त रहता है। वही क्षुब्ध होने के कारण आप: रूप हो जाता है। अत: अशनाया (कामना) के प्रभाव से पहले पानी उत्पन्न हुआ। प्राण ही प्राण-आप: रूप दो रूपों में विभक्त हो गया। प्राण वृषा है, पुरुष है। आप: योषा है स्त्री है।
आप: (अप्) तत्त्व में जाया-धारा-आप:-जीवन-ऋत ये पांच बल पैदा होते हैं। इनके मूल में कारण आत्मेच्छा ही है। ईश्वर तत्त्व का अनुमान ही किया जा सकता है। क्रिया से प्राण का अनुमान होता है। प्राण का उद्गम इच्छा है। इच्छा ईश्वर की- हमारी नहीं। उपरोक्त पांचों बलों का आधारभूत आप उसी की इच्छा से हुआ। अधिदेव में स्वयंभू-ब्रह्माग्नि से अंभ, सौर देवाग्नि से मरीचि, पार्थिव भूताग्नि से मर नामक पानी उत्पन्न होता है। ये तीनों सत्याग्नि हैं। अन्तरिक्ष (चान्द्र) प्राणमय वैश्वानर से श्रद्धा नाम का पानी उत्पन्न होता हैं।
यह भी पढ़ें षोडशी (वेद) प्रजापति कामना द्वारा अपने वेद के वाक् भाग से पहले पानी ही उत्पन्न करता है। स्वयं आप: मण्डल के गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है। तत् सृष्टवा तदेवानुप्राविशत्। इससे मण्डल रूप ब्रह्माण्ड का उदय होता है। ‘‘मैं इन पानियों से संसार को धारण करूं’’-धाराबल का उदय- प्रजापति के सत्य संकल्प इच्छा से- होता है। सातों लोकों को पानी ही धारण करता है। आप ही लोक सृष्टि की प्रतिष्ठा है।
कुछ ‘उत्पन्न करूं’ की इच्छा से पानी में प्रजनन शक्ति आ जाती है। पानी (शुक्र) ही सबकी उत्पत्ति का कारण है। पानी से पृथ्वी, औषधि, अन्न, शुक्रादि बनते हैं। यह दूसरा बल (उत्पत्ति) जायाबल कहलाता है। सृष्टि करने के लिए अग्निबल भी चाहिए। जायारूप शुक्रमय पानी मातरिश्वा की प्रेरणा से अग्निवेद को अपने गर्भ में प्रतिष्ठत कर लेता है। अग्निधर्मा यह जाया पानी ही प्रजननधर्मा है। स्त्री जाया है- सौम्या है। अत: यह जायाबल ही स्त्री का उपादान कारण है। अग्नि पुरुष है। वही इस जायाभाव से वेष्टित गर्भगत शोणित है। साक्षात् अग्नि है।
यह भी पढ़ें शुक्र सोम रूप जाया है। इसमें व्याप्त गर्मी पुरुष है। स्त्रीवत् पुरुष भी जाया है। आत्मा पहले पुरुष शरीर में शुक्रावरित इसी जाया में गर्भ धारण करता है। पुरुष के सर्वांग शरीर का शुक्र पुरुषाकार को अपना आयतन बनाकर ही शोणित में आहुत होता है। पुरुष आहुत होता है, स्त्री निर्माण करती है। गर्भकाल में, जितनी भी आसुरी शक्तियां ब्रह्मा पर आक्रमण करती हैं, उसी भांति गर्भ पर आक्रमण करती हैं, मां ही उनका वध करती है। पति के काम-क्रोध-लोभ से भी गर्भ की रक्षा करती है। स्वयं अपनी तामसी वृत्तियों का त्याग करके भी जीवात्मा के सात्विक भाव का पोषण करती है। तामसी अन्न भी माता-शिशु के तामसी मन का निर्माण करता है। आध्यात्मिक जीवनशैली मां की प्राथमिकता हो जाती है। जीव प्रत्येक दृष्टि से निष्कर्म रहता है। केवल कामना ही उसका कर्म है। कामना में क्रिया नहीं होती।
माया कामना है, प्रेरणा बल है, क्रिया शक्ति है। मृत्यु लोक में क्रियाभाव की प्रधानता है। त्रिगुणात्मक प्रकृति की प्रधानता है। देववर्ग आग्नेय तत्त्व होता है। सोमपान ही उनकी शक्ति होती है। असुर सारे वारुणी वर्ग में आप्य प्राण प्रधान हैं। देवता इनके आगे निर्बल रहते हैं। पानी अग्नि को बुझा देता है। देवता कभी भी असुरों से विजयी नहीं हो पाते। इसी प्रकार पुरुष का सोम अंश स्त्री के आग्नेय भाग से निर्बल रहता है। सदा स्त्री की संकल्पित दिव्यता ही विजयी देखी जाती है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com सूत्रवायु : योजक-जोड़ने वाला वायु
वेष्टित : घिरा हुआ, आच्छादित
वारुणी वर्ग : वरुण की प्रधानता वाली आसुरी सृष्टि
आप्य प्राण प्रधान : जल की प्रधानता वाले प्राण