बीकानेर शहर की रचना इस तरह की है कि आसपास की जमीन ऊंची है। शहर के चारों ओर तालाब थे ताकि बरसात में बाहर का पानी सिमटकर इनमें भर जाए। इससे आबादी को पानी मिल जाता था। सूरसागर, जसोलाई, भाटोलाई, गबोलाई, बिन्नाणियों की तलाई, नरसिंह सागर, बागीनाड़ा आदि इसी तरह के तालाब थे। अब आबादी के फैलाव के साथ तालाबों के अगोरों में मकान बन गए। उनकी उपयोगिता वैसी नहीं रही। एक मुसीबत स्थायी तौर पर बनी रह गई कि बरसात के थोड़े से पानी से भी शहर में ढलान के कारण बाढ़ की सी हालत पैदा हो जाती है। अब तालाब या तो गंदगी के घर बने हुए हैं या मुसीबत की जड़, क्योंकि इन तालाबों से पानी शहर की आबादी में घुस आता है। कुछ तालाब तो आबादी के बीच में आ गए हंै।
(कुलिश जी के यात्रा वृत्तांत आधारित पुस्तक ‘मैं देखता चला गया’ से)
गांव का रिश्ता मकान, जायदाद का ही रिश्ता नहीं होता। टोंक जिले का सोडा गांव मेरी जन्मभूमि है। यहां मैं पला हूं और बड़ा हुआ हूं। इसकी मिट्टी में खेला हूं। इसके तालाब में रोज नहाता रहा हूं। नहाने का वह मजा किसी बड़े से बड़े होटल के आलीशान स्वीमिंग पूूल में भी नहीं आ सकता। अपने गांव की बात ही कुछ और होती है। वह खेलना, वह तैरना, पाठशाला में पढऩा, खेतों की रखवाली करना, उगती और कटती फसलों को देखना, कुछ और ही मायने रखता है। मुझे अब तक बचपन की सब बातें हूबहू याद हैं।
(कुलिश जी के आत्मकथ्य पर आधारित पुस्तक ‘धाराप्रवाह’ से)