अगर तापमान की बात करें, तो पिछले दो दशकों में भारत का औसत वार्षिक तापमान 25.05 डिग्री से बढ़कर 25.74 डिग्री हो गया है। यह वृद्धि मामूली लग सकती है, लेकिन इसका कृषि, जल जीवन चक्र और जन स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ रहा है। न्यूनतम और अधिकतम तापमान में भी क्रमश: 0.92 और 0.47 डिग्री की वृद्धि हुई है, जो हमारी जीवनशैली, उत्पादन प्रणाली और जैव विविधता पर मंडराते संकट का संकेत है। हालांकि, बारिश के आंकड़ों में दीर्घकालिक गिरावट या वृद्धि का कोई स्पष्ट रुझान नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट है कि बारिश का पैटर्न असामान्य हो गया है। कभी अत्यधिक बारिश तो कभी लंबे समय तक सूखे की स्थिति न केवल किसानों की आय को प्रभावित कर रही है, बल्कि शहरों और गांवों में पानी की आपूर्ति को भी बाधित कर रही है।
पिछले दस वर्षों में तापीय ऊर्जा से उत्पादन 7.9 लाख गीगावाट घंटे से बढ़कर 13.2 लाख गीगावाट घंटे हो गया है, जबकि अक्षय ऊर्जा से उत्पादन भी तीन गुना से अधिक बढ़ा है। यह सकारात्मक संकेत है कि भारत वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ रहा है, लेकिन जब तक तापीय ऊर्जा आधारित संयंत्रों पर निर्भरता कम नहीं की जाएगी, तब तक वायुमंडल में प्रदूषकों का स्तर कम नहीं होगा। वहीं, अंतर्देशीय मछली उत्पादन 61 लाख टन से बढ़कर 139 लाख टन हो गया है। आर्थिक दृष्टि से यह वृद्धि महत्वपूर्ण लगती है, लेकिन यदि यह पारिस्थितिक संतुलन के बिना हो रही है, तो दीर्घावधि में इसका जल निकायों की जैविक संरचना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। मछली पालन की बढ़ती मांग के साथ यह भी जरूरी है कि जल निकायों का प्रदूषण न बढ़े और जैव विविधता सुरक्षित रहे।
रिपोर्ट की सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि यह नीति निर्माताओं को वैज्ञानिक और साक्ष्य आधारित आधार प्रदान करती है, जिसके आधार पर दीर्घकालिक रणनीतियां बनाई जा सकती हैं। आज जब हम जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण क्षरण और संसाधनों के ह्रास के दौर में प्रवेश कर चुके हैं, ऐसे में ऐसा कोई भी डेटा केवल सूचना नहीं, बल्कि चेतावनी है। अब सवाल यह उठता है कि इस डेटा संग्रह से आगे क्या? भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में केवल डेटा से कोई दिशा तय नहीं होती। जब इन डेटा का सही विश्लेषण किया जाएगा और ठोस नीतियां जमीन पर लागू की जाएंगी, तभी इनका असर दिखेगा।
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जरूरी है कि हम आपदा के समय न सिर्फ कार्रवाई करें, बल्कि पहले से तैयारी भी करें। इसके लिए कृषि, जल प्रबंधन, उद्योग, परिवहन और निर्माण जैसे क्षेत्रों में पर्यावरण अनुकूल तकनीक और नीतियां अपनाना जरूरी है। उदाहरण के लिए सौर और पवन ऊर्जा को प्राथमिकता देना, हरित भवनों को बढ़ावा देना, वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाना और वृक्षारोपण की गति बढ़ाना जैसी पहल सतत विकास की दिशा में कदम हो सकते हैं। इसके अलावा जनभागीदारी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जब तक आम नागरिक पर्यावरण के महत्व को नहीं समझेंगे और अपनी जीवनशैली में बदलाव नहीं लाएंगे, तब तक नीतियां सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहेंगी। जल संरक्षण, ऊर्जा बचत, अपशिष्ट प्रबंधन और पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है।
यह कहा जा सकता है कि ‘एनविस्टेट्स इंडिया 2025’ सिर्फ एक सांख्यिकीय रिपोर्ट नहीं है, बल्कि एक आईना है जो हमें हमारे पर्यावरण की सच्ची तस्वीर दिखाता है। यह हमें आगाह करता है कि अब समय बहुत कम है। अगर हम वाकई आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित, स्वच्छ और संतुलित पर्यावरण छोड़ना चाहते हैं, तो हमें इन आंकड़ों से सबक लेना चाहिए और उन्हें बदलाव के औजार में बदलना चाहिए। यह वह समय है जब आंकड़ों को दस्तावेज के रूप में नहीं, बल्कि चेतावनी और निर्देश के रूप में देखा जाना चाहिए।