इससे पहले जिनके पास इंटरनेट व कंप्यूटर सुविधा या ज्ञान नहीं होता था, उनके लिए ‘हैव नॉट’ शब्द प्रयोग में लाया जाता था। यानी, इंटरनेट और कंप्यूटर से वंचितों को डिजिटल रूप से दूर मानते हुए विभाजित या वंचित कहा गया।
लेकिन अब मामला अधिक पेचीदा हो गया है क्योंकि दुनिया के कई देश जो अब तक डिजिटल विभाजन की खाई को ही नहीं पाट सके थे, उनके सामने अब एआई को छू भी न पाने की अजब समस्या खड़ी हो गई है। दरअसल अब एआई एक नए वैश्विक असंतुलन को जन्म दे रहा है।
द न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, एआई युग में एक नई खाई बन रही है जो दुनिया को दो हिस्सों में बाँट रही है — एक जिनके पास यह ताकत है, और दूसरे जिनके पास नहीं। ओपनएआई के सीईओ सैम ऑल्टमैन टेक्सास में अपनी कंपनी के नए डेटा सेंटर का निर्माण कर रहे हैं। न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क से भी बड़े, इस 60 बिलियन डॉलर की लागत वाले प्रोजेक्ट में प्राकृतिक गैस संयंत्र भी शामिल है और इसके अगले वर्ष तक पूर्ण होने की संभावना है। यह दुनिया के सबसे शक्तिशाली एआई कंप्यूटिंग हब में से एक होगा।
वहीं दूसरी ओर अर्जेंटीना के नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ कॉर्डोबा के प्रोफेसर निकोलस वोलोविक एक छोटे से कमरे में, पुराने सर्वर और चिप्स के साथ अपने देश के सबसे उन्नत एआई केंद्र का संचालन कर रहे थे।
लेकिन वे चिंतित हैं कि “सब कुछ विभाजित हो रहा है और वे पीछे छूट रहे हैं।” यह दर्शाता है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआई ने एक नया तकनीकी विभाजन खड़ा कर दिया है — ऐसे राष्ट्र जिनके पास अत्याधुनिक एआई प्रणाली बनाने के लिए कंप्यूटिंग ताकत है और वे देश जिनके पास नहीं। यह विभाजन केवल तकनीकी नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव भी डाल रहा है।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार, अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ के पास दुनिया के सबसे शक्तिशाली एआई डेटा सेंटरों का बड़ा हिस्सा है। अमेरिका और चीन की कंपनियों ने लगभग 90 प्रतिशत वैश्विक एआई डेटा सेंटर स्थापित किए हैं। मोटे तौर पर दुनिया के केवल 32 देशों के पास ऐसे केंद्र हैं — यानी लगभग 16 प्रतिशत राष्ट्रों के पास ही ‘कंप्यूटिंग पावर’ है।
यह कंप्यूटिंग और एआई पावर का यही संतुलन उसी अनुपात में भारी असंतुलन को जन्म दे रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि तेल उत्पादक देशों की तरह ही एआई कंप्यूटिंग संसाधनों पर नियंत्रण रखने वाले देश भविष्य में अंतरराष्ट्रीय मामलों पर अत्यधिक प्रभाव डाल सकते हैं।
कई विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि एआई पर प्रभुत्व का अर्थ “विश्व-विजयी” माने जाने जैसा है — या यह ‘सक्षम और अजेय होने’ की नई परिभाषा है। गनीमत है कि हमारे भारत में कम से कम 5 और जापान में 4 एआई डेटा सेंटर हैं। लेकिन अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में एक भी डेटा सेंटर स्थापित नहीं हो पाया है। हैरत की बात तो यह भी है कि 150 से अधिक देशों के पास एआई केंद्रों के लिए कोई बुनियादी ढांचा भी नहीं है।
एक तरफ बहुत सारे देश पिछड़ते जा रहे हैं, वहीं माइक्रोचिप्स जैसे हार्डवेयर संसाधन भी विदेशी व्यापार नीतियों का हिस्सा बनते जा रहे हैं, जिन्हें अमेरिका और चीन कूटनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। एआई पर आधिपत्य की दौड़ ने एआई संपन्न देशों में भी प्रतिस्पर्धा की घातक जंग छेड़ दी है। एक खेमा अमेरिका निर्मित है, तो दूसरा चीन। चीन के समर्थन वाले डेटा सेंटर अब मध्य-पूर्व और अफ्रीका में बन रहे हैं, वहीं अमेरिका अपने चिप्स और एआई तक पहुंच को कूटनीतिक सौदों के जरिए नियंत्रित कर रहा है।
माइक्रोसॉफ्ट के पास 93, अमेजन के पास 84 और गूगल के 66 कंप्यूटिंग हब हैं। वहीं चीन की कंपनियों अलीबाबा के पास 61, हुआवेई के पास 44 और टेनसेंट के पास 38 केंद्र हैं। यूरोप की तुलना में यह संख्या कहीं अधिक है।
तो वाकई ऐसा माना जा सकता है कि आर्थिक तौर पर कमजोर देशों के लिए‘अन-एआई’एक ऐसी खाई साबित होने वाली है जो उन्हें हर मामले में पीछे धकेल देगी। हालांकि हमारे देश ने भी एआई को बहुत तेजी से अपनाया है। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) की रिपोर्ट में बताया गया है कि वैश्विक स्तर पर एआई को अपनाने की दर 26 प्रतिशत है जबकि भारत में यह 30 प्रतिशत है। हालांकि यह आँकड़े हमें आंशिक सांत्वना देने के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन भविष्य में एआई के वांछित कौशल के बार-बार बदलने वाले मापदंडों के दौर में सिर्फ एआई की समझ काफ़ी नहीं होगी।
असल समस्या तो कंप्यूटिंग, उन्नत प्रौद्योगिकी और एआई के वैश्विक असंतुलन की है। चिंता यह है कि एआई नए दौर का देवता भी है और दानव भी। जहां एआई जीवन को सहज बनाने, उत्पादकता गुणा करने और जान बचाने के काम लिया जा रहा है, वहीं एआई औजार डेटा चुराकर दूसरे देश को क्षति पहुंचाने सहित युद्ध में एक मारक हथियार के रूप में विकसित हो रहा है।
ऐसे में अब तक डिजिटल विभाजन के संघर्ष से न उबर पाए देश, अब एआई के महंगे विभाजन से कैसे लोहा ले पाएंगे — इसका जवाब दे पाना बहुत मुश्किल है। यानी एआई आधारित आधिपत्य की वैश्विक चुनौती में एआई संपन्न और एआई डिवाइड देश एक नया‘वर्ल्ड ऑर्डर’तय करेंगे।