एच-1बी वीजा मुद्दे पर हैरान कर रहे ट्रंप-मस्क
विनय कौड़ा अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञअमरीका की आंतरिक राजनीति में इन दिनों आव्रजन के मुद्दे पर एक अत्यन्त दिलचस्प वैचारिक बहस चल रही है जिस पर बहुत से भारतीयों की भी नजर है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप कुछ वक्त पहले जिस एच-1बी प्रणाली के खिलाफ बयानबाजी करने नहीं थकते थे, आज आश्चर्यजनक रूप से उसी […]
विनय कौड़ा अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ
अमरीका की आंतरिक राजनीति में इन दिनों आव्रजन के मुद्दे पर एक अत्यन्त दिलचस्प वैचारिक बहस चल रही है जिस पर बहुत से भारतीयों की भी नजर है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप कुछ वक्त पहले जिस एच-1बी प्रणाली के खिलाफ बयानबाजी करने नहीं थकते थे, आज आश्चर्यजनक रूप से उसी वीजा को एक बेहतरीन कार्यक्रम बता रहे हैं। उनके समर्थक और आलोचक दोनों हैरान हैं। ट्रंप के करीबी एवं टेस्ला, एक्स और स्पेसएक्स के मालिक एलन मस्क ने भी एच-1बी वीजा का जबर्दस्त समर्थन करते हुए इसके लिए कोई भी ‘युद्ध’ छेडऩे का दम ठोक दिया। हालांकि बहस को और विभाजनकारी होने से बचाने और रिपब्लिकन पार्टी में कलह रोकने के उद्देश्य से उन्होंने अपना रवैया थोड़ा नरम करते हुए अमरीकी कामगारों के न्यूनतम वेतन में इजाफा करने का आह्वान किया। साथ ही एच-1बी को बनाए रखने के लिए इसमें वार्षिक लागत जोडऩे की मांग की ताकि घरेलू स्तर की तुलना में विदेशों से कुशल श्रम अधिक महंगा हो जाए।
बहरहाल इस बहस में भारतीय कार्यबल की सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि अमरीका में उनका भविष्य कहीं अंधकार में न पड़ जाए, क्योंकि एच-1बी वीजा प्रणाली से सबसे ज्यादा लाभांवित भारतीय ही हैं। दरअसल जॉर्ज बुश सीनियर के कार्यकाल में 1990 में आरंभ एच-1बी एक गैर-अप्रवासी वीजा है जो कुशल श्रमिकों को आम तौर पर तीन साल के लिए दिया जाता है। हालांकि इसे छह साल तक के लिए बढ़ाया जा सकता है। वर्ष 2004 से जारी किए जाने वाले नियमित एच-1बी वीजा की संख्या प्रतिवर्ष 65,000 तक सीमित कर दी गई है। इसके अतिरिक्त 20,000 वीजा अमरीकी विश्वविद्यालयों से मास्टर या उससे डिग्री प्राप्त करने वाले विदेशी छात्रों के लिए दिए जाते हैं। समर्थकों का दावा है कि एच-1बी वीजा प्रणाली का मकसद अमरीकी श्रमिकों की नौकरी छीनना नहीं है, बल्कि विशेषज्ञ श्रमिकों की कमी को भरना है जिसे अमरीकी कार्यबल पूरा नहीं कर सकता। यह विशेष वीजा अमरीका स्थित कंपनियों को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और आईटी के उच्च दक्षता वाले क्षेत्रों में नौकरियों के लिए विदेशी श्रमिकों को नियुक्त करने करने की अनुमति देता है। लेकिन दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी आलोचक इन दावों से सहमत नहीं हैं। ट्रंप भी एक समय एच-1बी वीजा के कड़े आलोचक रहे हैं और वे इसे अमरीकी श्रमिकों के लिए ‘बहुत बुरा’ और ‘अनुचित’ बता चुके हैं। जब एच-1बी वीजा योजना में धोखाधड़ी की जांच की मांग उठी तो 2017 में ट्रंप ने अपने पिछले राष्ट्रपति काल में इन आवेदनों की जांच बढ़ा दी। उस दौरान अस्वीकृति की दर अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। 2020 में अमरीकी श्रम विभाग ने एच-1बी वीजा धारक के न्यूनतम वेतन को मानक अमरीकी कर्मचारी के बराबर बढ़ाने के लिए एक प्रस्ताव भी रखा था जो बाद में पारित नहीं हो पाया।
दक्षिणपंथी लोकलुभावनवादी राजनीति की इस बहस में ट्रंप ने एच-1बी वीजा प्रणाली पर अपना रवैया बदल लिया है। इस वीजा को अमरीका के लिए खतरा मानने वाले रिपब्लिकन पार्टी के अनेक रूढि़वादी सदस्यों की राय को दरकिनार करते हुए ट्रंप ने मस्क और विवेक रामास्वामी का पक्ष लिया है, जो इस वीजा के समर्थक हैं। ट्रंप के सरकारी दक्षता विभाग के नव नियुक्त सह-अध्यक्ष और भारतीय मूल की संतान रामास्वामी ने अमरीकी संस्कृति और उसके शिक्षा मानकों की आलोचना करते हुए यह कह दिया कि ‘बहुत लंबे समय तक उत्कृष्टता की तुलना में औसत दर्जे को महत्त्व दिया गया।’ ये टिप्पणी सच्चाई तो बयां करती है लेकिन लाखों अमरीकियों और उनकी सांस्कृतिक पसंद के प्रति अभिजात्य वर्ग के तिरस्कार जैसी प्रतीत भी होती है। फिर श्रीराम कृष्णन की एआइ सलाहकार के रूप में नियुक्ति ने भी अमरीकी राजनीति में भूचाल सा ला दिया है। यह तो केवल समय ही बताएगा कि इस मुद्दे पर किसका पलड़ा भारी पड़ेगा, लेकिन एच-1बी पर अमरीका में चल रही यह बहस अब सिर्फ आर्थिक नफा-नुकसान तक सीमित न रहकर एक तरफ दक्षिणपंथी राजनीति में आव्रजन-विरोधी लोकलुभावानवाद की प्रासंगिकता और दूसरी तरफ कृत्रिम बुद्धिमत्ता और नवीन पीढ़ी की कंप्यूटिंग के कारण अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण हो गई है। इस दिलचस्प बहस के गर्भ में एक बड़ा सवाल अमरीका की वैश्विक तकनीकी दौड़ में भारतीय प्रतिभाशाली वर्ग के स्थान को लेकर भी है।
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