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विश्व कविता दिवस विशेष : कविता के बिना बेसहारा हो जाता भावाभिव्यक्ति का संसार

कविता समूचे परिवेश को ऐसी चेतना देती है जो सामवेत स्वर में सबके कल्याण और सबके सुखों की कामना करता है। वह क्षुद्र स्वार्थों के लिए सच के सम्मान और स्वाभिमान से समझौता करने की इच्छुक नहीं होती।

जयपुरMar 20, 2025 / 04:56 pm

Sanjeev Mathur

– अतुल कनक
सभ्य संसार में कविता के योगदान को देखते हुए यूनेस्को ने वर्ष 1999 में हर साल 21 मार्च को विश्व कविता दिवस मनाने का निर्णय किया और वर्ष 2000 से यह आयोजन पूरी दुनिया में अनवरत मनाया जा रहा है। दुनिया की सबसे चर्चित पुस्तकों में एक पुस्तक है- मेरा दागिस्तान। इस पुस्तक के रचनाकार रसूल हमजातोव एक स्थान पर लिखते हैं- ”कविता, तुम नहीं होतीं तो मैं यतीम हो जाता।” प्राचीन भारतीय वांग्मय में कवि के लिए ऋषि शब्द का प्रयोग भी किया गया है। कविता का सृजन किसी गहन साधना से कम नहीं होता। दो-चार तुकबंदियों को कविता नहीं कहा जाता। कविता समूचे परिवेश को ऐसी चेतना देती है जो सामवेत स्वर में सबके कल्याण और सबके सुखों की कामना करता है। वह क्षुद्र स्वार्थों के लिए सच के सम्मान और स्वाभिमान से समझौता करने की इच्छुक नहीं होती।
हालांकि कविता दिवस के आयोजन की प्रस्तावन सभ्य समाज में कविता के योगदान की बात करती है, लेकिन सच यह है कि जब मनुष्य समाज ने सभ्यता के सोपान संवारने शुरू भी नहीं किए होंगे, मनुष्य के मन में बैठा सर्जनात्मक तत्व समूची सृष्टि को संवारने की शुरुआत कर चुका होगा। यह जो सर्जनात्मकता है, यही कविता का मूलाधार भी है। सृजन सर्वत्र सुख और सदाशयता की बात करता है। वह प्रेम का पोषण करता है। इसीलिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित हुए पाब्लो नेरूदा ने एक कविता में लिखा -”मैं तुम्हारे साथ वही करना चाहता हूं जो बसंत फूलों के साथ करता है।” कविता मनुष्यता को वही सौंदर्य देना चाहती है, जो बसंत समूचे परिवेश का देता है। उन्नीसवी शताब्दी में राजस्थान के बूंदी रियासत के राजकवि थे सूर्यमल्ल मिश्रण। वो कई विद्याओं के ज्ञाता थे और कई भाषाओं के जानकार भी। उन्होंने अपने आश्रयदाता की प्रेरणा से पूरे वंश का इतिहास एक काव्यग्रंथ में लिखना शुरू किया। लेकिन ग्रंथ के रचनाकाल में ही राजा और कवि के मध्य कुछ प्रसंगों को लेकर विवाद हो गया। सूर्यमल्ल उन प्रसंगों का पूरा सच लिखना चाहते थे और आश्रयदाता की इच्छा थी कि प्रसंग से जुड़े कुछ तथ्यों को छुपा लिया जाए। स्वाभिमानी सूर्यमल्ल मिश्रण ने अपने महनीय ग्रंथ को अधूरा ही छोडऩा तो स्वीकार कर लिया लेकिन सच के साथ समझौता नहीं किया। ये सूर्यमल्ल मिश्रण 1857 की क्रांति के एक महत्वपूर्ण नायक भी हुए।
कवि से बढ़कर क्रांति के स्वप्न को कौन अभिव्यक्त कर सकता है? प्राचीनकाल में तो राजा अपने दरबारों में इसीलिए राजकवियों को रखते थे कि कवि विषम परिस्थितियों में राजा को दिशा बोध दे। हालांकि कुछ लोगों ने इस जिम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वहन नहीं किया, लेकिन बिहारी जैसे रीतिकालीन कवि ने भी प्रिया के प्रेम में अपने दायित्वों को भूले राजा को देखकर यह कहने में संकोच नहीं किया था कि- ”नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल/ अली- कली सौं ही बिंध्यो, आगे कौन हवाल?” कहते हैं कि जब पृथ्वीराज चौहान को मौहम्मद गौरी ने अंधा कर दिया था तो पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंद बरदाई ने ”चार हाथ, चौईस गज अंगुल अष्ट प्रमाण/ ऐते पर सुलतान है, मत चूके चौहान” कहकर दृष्टिहीन पृथ्वीराज को प्रेरणा दी थी कि वो शब्द भेदी बाण चलाकर सुलतान के अन्याय का प्रतिकार कर सके। ब्रिटिश दासता के समय जब मेवाड़ के राणा फतेहसिंह ने दिल्ली दरबार में शामिल होने का फैसला किया तो क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह बारहठ ने ‘चेतावनी रा चूंगट्या’ लिखकर राणा के स्वाभिमान को झकझोरा और राणा ने दिल्ली दरबार की यात्रा बीच में ही रद्द कर दी। छत्रपति शिवाजी तो अपने दरबारी कवि भूषण का बहुत सम्मान करते थे। कहते हैं कि वो अनेक अवसरों पर कवि की पालकी को स्वयं उठाने में भी संकोच नहीं करते थे। कविता व्यक्ति को प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का हौंसला संजोने का सामथ्र्य तो देती ही है, वो जीवन के आनंद और अंतस की उदासियों को भी अभिव्यक्त करती है। भावनाओं को अभिव्यक्त करने का सबसे प्रभावशाली और सबसे सरस माध्यम मानी गई है- कविता। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कविता के बिना हमारे भक्ति भाव सलीके से संप्रेषणीय हो सकते या कोई प्रेम अभिव्यक्त होते हुए गीत की मधुर कल्पना को अपनी अंजुरी में संजो सकता?
भारतीय चिंतन में कविता के नवरस माने गए हैं। ये नवरस जीवन को उसकी समग्रता में अभिव्यक्त करते हैं। जब हम अपने आराध्य की स्तुति कर रहे होते हैं, तब भी मूलत: हम कविता के ही स्वरों को मुखर कर रहे होते हैं और जब कोई मां अपने प्रिय शिशु को लोरी सुनाकर प्रेम जता रही होती है, तब भी वो कविता के माध्यम से ही अपने भावों को निरूपित कर रही होती है। कवि को ऋषि कहा गया है क्योंकि वो अपनी शब्द साधना द्वारा अन्य जन के भावों को भी अभिव्यक्त करने की सामथ्र्य का धनी होता है। जो अपनी चेतना से दूसरों के सुख-दुख को अभिव्यक्ति का आकाश दे सके, वह एक महनीय साधक होता है। कविता में एक सहज रागात्मकता होती है, जो छोटे बच्चों को भी लुभाती है और चैतन्य मन को भी। तभी तो कविता के माध्यम से सुनी-गुनी बात हमें लंबे समय तक याद रहती है। शायद यही कारण है कि दुनिया भर में वक्ता अपने कथ्य को प्रभावशाली और स्मरणीय बनाने के लिए काव्य पंक्तियों का प्रयोग करते हैं।

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