इस कदम से उम्मीद करनी चाहिए कि भविष्य में यह व्यवस्था पूरे प्रदेश में लागू होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार 85 डेसिबल से अधिक के शोर में लंबे समय तक रहना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। बड़े बुजुर्ग ही नहीं शोरगुल का असर बच्चों के मानसिक विकास पर भी पड़ता है। यह सहज सवाल उठता है कि हम अपने बच्चों का पालन ऐसे माहौल में कैसे कर सकते हैं जहां शांति का कोई स्थान न हो? ये तीन बड़े शहर ही नहीं बल्कि राजस्थान का कोई शहर ध्वनि प्रदूषण की समस्या से अछूता नहीं है। सडक़ों पर तेज आवाज में बजते वाहनों के होर्न, लाउडस्पीकर का अत्यधिक उपयोग, जहां-तहां होते सार्वजनिक आयोजनों में इस सीमा का पालन कभी नहीं होता है। शोर पारिस्थितिकी तंत्र और पशु-पक्षियों के जीवन के लिए भी विनाशकारी साबित हो रहा है।
जानकार बताते हैं कि अधिक शोर से पशु-पक्षियों में बेचैनी और दिशाभ्रम होता है, दरअसल उनका संचार आवाज पर ही निर्भर होता है। यही कारण है शहरीकरण में शोर बढ़ते जाने से पक्षियों की चहचहाट कम हो गई है। हम विकास के नाम पर स्मार्ट सिटी तो बना रहे हैं। सवाल यह है कि इनमें भव्य इमारतें और सडक़ें जरूर हैं, लेकिन क्या इसके साथ शांति, स्वास्थ्य और सुरक्षित पर्यावरण के प्रबंध भी हैं? ध्वनि प्रदूषण की मॉनिटरिंग के लिए अगर शहर में जगह-जगह डिस्प्ले बोर्ड लगते हैं तो उसका असर भी दिखना चाहिए। वाहनों के हॉर्न और लाउडस्पीकर्स के उपयोग पर सख्त नियंत्रण के लिए नीतिगत उपाय जरूरी हैं। तकनीकी समाधान के साथ आम जनता ध्वनि प्रदूषण के दुष्प्रभावों को समझे इसके लिए जन जागरूकता भी आवश्यक है। -रमेश शर्मा