scriptवे गिरीं… संभलीं और अब इतिहास रच रही हैं, आगरा में अनोखा कॉफी हाउस चला रहीं एसिड पीड़िताएं | She fell. She regained her balance and is now creating history, acid victims are running a unique coffee house in Agra | Patrika News
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वे गिरीं… संभलीं और अब इतिहास रच रही हैं, आगरा में अनोखा कॉफी हाउस चला रहीं एसिड पीड़िताएं

आगरा का ‘शिरोज कैफे’ संगमरमर की खूबसूरती से अलग, हिम्मत और उम्मीद की अनोखी मिसाल है। एसिड अटैक सर्वाइवर्स यहां दर्द पर फतह की कहानी लिख रही हैं, जहां हर मुस्कान संघर्ष की गूंज है। आइए पढ़ें डॉ. मीना कुमारी की रिपोर्ट…

आगराMar 31, 2025 / 01:57 pm

Aman Pandey

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पूरी दुनिया आगरा शहर में ताजमहल की खूबसूरती को निहारने के लिए आती है। शाहजहां की बनाई ये अजीमो-शान इमारत बेइंतिहा खूबसूरती की वजह से मुल्क के इतिहास में यादगार है। लेकिन इसी शहर में एक ऐसी यादगार और है जो बेजान संगमरमर से नहीं, बल्कि हौसले, उम्मीद और बेमिसाल इंसानी जज्बे से गढ़ी गई है। यह यादगार है- ‘शिरोज कैफे’, जहां ताज़ी कॉफी की खुशबू हिम्मत और हौसले की कहानियों के साथ घुल-मिल जाती है और काउंटर पर परोसी गई हर मुस्कान में बेपनाह दर्द पर फतेह की गूंज होती है। यहां खूबसूरती के मायने चेहरे की चमक नहीं, वरन उन हाथों की ताकत है जो जिंदगी को राख से फिर से उठाते हैं।

जब खूबसूरती का मतलब बदला

‘शिरोज कैफे’ कोई मामूली जगह नहीं है। यह एक ऐसा कयाम है, जिसे पूरी तरह से महिलाएं संभालती हैं। वे महिलाएं, जिन्होंने खौफनाक एसिड हमलों को झेला है। उनके चेहरे और शरीर पर क्रूरता के निशान हैं, मगर उनके हौसले अडिग हैं। “शी” (स्त्री) और “हीरोज” (नायकों) शब्दों से मिलकर बना “शिरोज” नाम ही उन वीरांगनाओं का सम्मान है, जिन्होंने खुद पर हुए जुल्म के निशानों को अपनी पहचान नहीं बनने दिया। एक ऐसी दुनिया, जो अक्सर शक्लो-सूरत से हैसियत तय करती है, शिरोज दर्द पर मकसद की जीत का प्रतीक है।

कैसे हुई इस पहल की शुरुआत?

हर साल लाखों लोग ऐतिहासिक इमारत ताजमहल को देखने आगरा आते हैं, लेकिन कम ही लोगों को पता है कि उससे थोड़ी ही दूरी पर एक अलग तरह का इतिहास रचा जा रहा है। बदलाव, प्रेरणा और सशक्त बनाने का इतिहास। 2014 में शुरू किया गया ‘शिरोज कैफे’ छाव फाउंडेशन के एक सपने की उपज था। यह सपना था-एसिड हमले की शिकार महिलाओं को न सिर्फ आजीविका देना, बल्कि उनकी गरिमा को वापस दिलाना। आगरा से शुरू हुई यह पहल अब एक आंदोलन बन चुकी है, जिसकी शाखाएं लखनऊ और नोएडा तक फैल गई हैं। यहां 35 से अधिक महिलाएं सीधे काम करती हैं, जबकि 150 से ज्यादा घर से हस्तशिल्प बनाकर या सामान तैयार करके योगदान देती हैं।

कॉफी के साथ हौसले की कहानियां

शिरोज में कदम रखते ही आपको सिर्फ कॉफी और नाश्ते का मेन्यू नहीं मिलता। कैफे में पढ़ने के लिए विभिन्न प्रकार की पुस्तकें भी उपलब्ध हैं, जो आपको ठहरने और सोचने का न्योता देती हैं। हमले में गंभीर रूप से घायल होने के कारण कैफे में काम करने में असमर्थ महिलाएं विभिन्न वस्तुएं बनाती हैं और कैफे में प्रदर्शनियों के माध्यम से उन्हें बेचती हैं, जो उनकी जीवटता की कहानी कहते हैं। पेस्ट्री बनाने से लेकर ग्राहकों को परोसने तक, हर काम यहां एसिड हमले से उबरी महिलाएं करती हैं। यहां बिकने वाली हर चीज़ उस सफर का हिस्सा है,और यह जाहिर सबूत है कि राख से भी सुंदरता उभर सकती है।
डॉली श्रीवास्तव की कहानी इसका जीता-जागता उदाहरण है। दस साल पहले एसिड हमले ने उनकी जिंदगी तहस-नहस कर दी थी। महीनों तक वह घर की चारदीवारी में कैद रहकर हमले में बाहर व भीतर मिले जख्मों को सहलाती रहीं। फिर एक दिन उनकी माँ की नज़र अखबार में ‘शिरोज कैफे’ के बारे में छपे लेख पर पड़ी। वह छाव फाउंडेशन पहुंची, जिससे जुड़कर उन्हें न सिर्फ काम, बल्कि एक मकसद भी मिला। वह गर्व से कहती हैं, “इन दस सालों में मैंने अनगिनत लोगों की सेवा की और मैंने सीखा कि असली सुंदरता चेहरे में नहीं, कर्मों में होती है।”

कैसे बदला समाज का नजरिया?

छाव फाउंडेशन के निदेशक आलोक दीक्षित शुरुआती दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “दो साल तक हमने एसिड हमलों के मुद्दे पर काम किया। कानून तो हैं, लेकिन यह सामाजिक समस्या है। हमने एक ऐसा मंच बनाने का फैसला किया, जो इनकी जिंदगी में सकारात्मक बदलाव लाए।” 2013 में शुरू हुए फाउंडेशन का मकसद था कि ये महिलाएं काम कर सकें, कुछ कमा सकें और उस समाज से फिर जुड़ सकें, जो अक्सर उन्हें ठुकरा देता है। 2014 में पहला कैफे खुला। शुरुआत में थोड़ी मुश्किल हुई, लेकिन जल्द ही लोगों ने इसे अपनाया। आलोक कहते हैं “यह सिर्फ कैफे नहीं, जागरूकता और सशक्तिकरण का जरिया है।” काम के साथ-साथ छाव स्वास्थ्य, प्रशिक्षण और जरूरतमंदों के लिए सर्जरी तक का इंतजाम करता है।
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कईयों के लिए शिरोज सिर्फ नौकरी की जगह नहीं, बल्कि एक परिवार है। हर परोसा गया कॉफी का प्याला, हर बिकने वाला हस्तशिल्प यह संदेश देता है: ये महिलाएं पीड़ित नहीं, विजेता हैं। यह उन हाथों में है, जो जलने के बावजूद आटा गूंथते हैं। उन आवाज़ों में है, जो क्रूरता के बाद भी मेहमाननवाज़ी से गूंजती हैं और उन दिलों में है, जो निराशा के बाद भी उम्मीद से धड़कते हैं। यहां का सत्य ताजमहल जितना ही शाश्वत है- असली सुंदरता चेहरे में नहीं, बल्कि उठने, रचने और फिर से जीने के साहस में है।

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