इसरो अध्यक्ष वी.नारायणन ने कहा कि 1970 के दशक में हमारे पास उपग्रह तकनीक भी नहीं थी। आर्यभट्ट के प्रक्षेपण के साथ एक छोटी शुरुआत हुई और आज हम उपग्रह प्रौद्योगिकी में परिपक्वता के उच्चतम स्तर पर हैं। हमारे उपग्रह चांद और मंगल पर पहुंच चुके हैं। एक देश जिसके पास उपग्रह निर्माण की तकनीक तक नहीं थी वह आज विश्व के 34 देशों के 433 उपग्रह लांच कर चुका है। हमारे 55 उपग्रह ऑपरेशनल हैं और पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं। इन उपग्रहों में से आधे से अधिक अगले दो से तीन साल में सेवा से बाहर हो जाएंगे। अगले कुछ वर्षों के दौरान 100 से 150 उपग्रह लांच करने की योजना है। यह उपग्रह निर्माण में हमारी महारत का उदाहरण है।
सोवियत संघ से करार
इसरो के उच्च पदस्थ अधिकारियों ने बताया कि आर्यभट्ट प्रक्षेपण के 50 साल पूरे होने पर मुख्यालय में एक कार्यशाला आयोजित की जा रही है। इसरो के लिए यह काफी महत्वपूर्ण दिन है और इसका श्रेय तत्कालिन इसरो अध्यक्ष प्रोफेसर यूआर राव को जाता है। दरअसल, प्रोफेसर राव ने ही वर्ष 1972 में तत्कालिन सोवियत संघ के साथ एक करार किया था जिसके तहत सोवियत संघ को भारतीय बंदरगाहों के उपयोग की छूट मिली और बदले में भारतीय उपग्रह लांच करने को वह तैयार हुआ। पहले भारतीय उपग्रह का नाम पांचवी सदी के सुविख्यात खगोलशास्त्री एवं गणितज्ञ आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया।
इंदिरा गांधी ने रखा आर्यभट् नाम
प्रोफेसर यूआर राव ने बताया था कि उपग्रह के लिए तत्कालिन इसरो अध्यक्ष सतीश धवन की अध्यक्षता वाले बोर्ड ने तीन नाम सुझाए थे। आर्यभट्ट, मित्रा और जवाहर। सूची में मित्रा का नाम भारत-सोवियत संघ की दोस्ती में भूमिका के चलते रखा गया था। लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आर्यभट्ट नाम का चुनाव किया। यह उपग्रह एक्स-रे, खगोल विज्ञान और सौर भौतिकी में प्रयोग को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। एक बहुभुज के आकार का यह अंतरिक्षयान 1.4 मीटर व्यास का था। उपग्रह की डिजाइनिंग इस तरह की गई थी कि वह 46 वाट ऊर्जा उत्पन्न करने में सक्षम था। उपग्रह को छह माह के अभियान पर भेजा गया था। पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करने के आर्यभट्ट ने 4 दिन बाद 60 परिक्रमा पूरे किए। उसके बाद ऊर्जा आपूर्ति बाधित हो गई और प्रयोग रूक गए। प्रक्षेपण के पांचवे दिन उपग्रह से संकेत मिलने बंद हो गए। लगभग 17 साल बाद यह उपग्रह 11 फरवरी 1992 को पुन: पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश किया। वर्ष 1976 से 1997 के बीच आर्यभट्ट उपग्रह का चित्र दो रुपए के नोट के पीछे प्रकाशित हुआ।
तीन करोड़ में तैयार हुआ था पहला उपग्रह
प्रोफेसर यूआर राव ने उन दिनों को याद करते हुए पत्रिका को बताया था कि उस समय इसरो की पूरी टीम एकदम युवा थी। देश पहली बार अंतरिक्ष में कदम रखने जा रहा था और इसको लेकर टीम उत्साहित थी। वर्ष 1972 में सोवियत संघ के साथ करार के बाद पहला उपग्रह तैयार करने में तीन साल लगे। उस समय आर्यभट्ट के निर्माण पर तीन करोड़ रूपए लागत आई थी। आगे चलकर वह करार देश की तकनीकी उन्नति में मील का पत्थर साबित हुआ और देश की तकनीकी उन्नति का मार्ग खुला। आर्यभट्ट के निर्माण में जिन तकनीकों को उपयोग किया गया उससे आगे चलकर भास्कर-1 और भास्कर-2 के निर्माण और प्रक्षेपण में काफी मदद मिली।