स्पोर्ट्स ग्रांट को ही ले लीजिए। सरकारी स्कूलों को बीस हजार स्पोर्ट्स किट देने के लिए मार्च में फर्म को टेंडर दिया गया। फर्म को 15 दिन से कम समय में स्पोर्ट्स किट तैयार कर, उस पर शिक्षा विभाग के लोगो तक प्रिंट कर प्रदेशभर में दूर-दराज की स्कूल तक पहुंचाकर प्राप्ति रसीद तक लेनी थी। नतीजतन फर्म ने स्पोर्ट्स किट तो स्कूलों तक पहुुंचा दी, लेकिन उसमें दोयम दर्जे की गुणवत्ता वाला सामान निकला। इस खेल का खुलासा होता, इससे पहले वित्तीय वर्ष समाप्ति के दबाव में फर्म भुगतान भी उठा ले गई।
यह तो कोरी बानगी है। गत दिसम्बर में सरकारी स्कूलों में वार्षिकोत्सव के आयोजन के लिए पांच और दस हजार रुपए खर्च करने की स्वीकृति दी गई। संस्था प्रधानों ने अपनी जेब से खर्चा कर बिल आदि इस उम्मीद से संभाल कर रखे कि सप्ताह-दस दिन में विभाग से भुगतान मिल जाएगा। परन्तु वित्तीय वर्ष के तीन-चार दिन पहले शिक्षा विभाग ने पचास फीसदी राशि का भुगतान किया है। वित्तीय वर्ष 31 मार्च को समाप्त हो जाएगा, ऐसे में शेष 50 प्रतिशत राशि का क्या होगा, किसी के पास जवाब नहीं है।
सरकारी स्कूलों में विद्यार्थी सालभर बिना स्कूल पोशाक और स्कूल बैग की जगह कपड़े के थैले में किताबें डालकर स्कूल आते रहे। चाहिए तो यह था कि स्कूल खुलने के सप्ताहभर में स्कूल ड्रेस, किताबें, बैग और नोटबुक विद्यार्थी को दी जाती। परंतु बच्चे इससे वंचित रहे। परन्तु शिक्षा सत्र समाप्त होने से ठीक पहले 800-800 रुपए प्रति विद्यार्थी के हिसाब से करोड़ों रुपए का बजट जारी किया गया है। इन सब प्रयासों से भ्रष्टाचार की बू आती है। न केवल शिक्षा विभाग, बल्कि तमाम महकमों में ऐसी जल्दबाजी की जांच होनी चाहिए।