आप तो जानते ही हैं कि ब्रजक्षेत्र, जो कृष्णभक्ति का प्रमुख केंद्र है। ब्रज क्षेत्र में कृष्ण भक्ति को प्रकट करने के प्रमुख माध्यमों में ब्रज भाषा की होली रचनाएं भी हैं, जिसके फाग लोक गीतों में आपको कृष्णलीलाओं का बखान खूब मिलता है। यहां राधा-कृष्ण, ग्वाल-बाल, गोपी आदि पर आधारित फाग रचनाओं में ब्रज संस्कृति को नजदीक से जानने का पूरा अवसर मिलता है। ऐसी ही कृष्ण भक्ति से पूर्ण इन रचनाओं के बारे में जानते हैं यहीं के सेवानिवृत्त शिक्षक कृष्ण चंद्र चतुर्वेदी से…
पढ़िए लोक जगत में प्रचलित ब्रज के होरी गीत
दरस कौ मोहन रंगीलो गोपाल,
या ही नै ध्रुव प्रहलाद उबारे,
ये ही कंस कौ काल दरस कौ
मोहन रंगीलो गोपाल…
शिक्षक चतुर्वेदी के अनुसार फाल्गुन में ब्रज क्षेत्र में फाग गायन आम है, और इसकी उमंग जनजीवन को आनंदित करता है। इन होरियों के साथ युवा-वृद्ध-बालकों की मंडली जब तान छेड़ती है तो ऐसी स्वर लहरियां उठती है कि मन प्रफुल्लित,आनंदित हो उठता है।
ऐसी ही एक रचना है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी की सखियों को राधेजी के संग होरी खेलने के लिए नंदगांव आने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं, होरी की इस रचना में देखिए ये पूरा प्रसंग…
बंसी में कह गयौ होरी खेलन की,
अइंयौं सखी नंदगाव
लइयों सखी संग राधे जू कौं
हमरे संग बलराम….. ये भी पढ़ेंः Folk Song Fag: होली पर गाए जाने वाले फेमस फाग और गीत, आइये जानते हैं इनकी परंपरा
वहीं एक अन्य होरी है जिसमें होरी खेलने के लिए बरसाने चलने का भाव है। बरसाने में होरी खेलने की पूरी योजना का इस रचना में विस्तार से वर्णन है। इसके बोल हैं…
“आज होरी खेलन चलो बरसाने को”
एक अन्य रचना जिसके बोल हैं …
जा कहना-जा कहना,
कहना जरूर श्याम से..
बुरा होता है दिल का लगाना।
गोपियां कान्हा की ऐसे करती हैं शिकायत
भावपूर्ण आमंत्रण वाली इन रचनाओं के अलावा नटखट कान्हा की शिकायतों का जिक्र भी इन होरी गीतों में श्रद्धा भाव से जसोदा मैया के सामने प्रकट किया गया है। पढ़िए लोकगीतजसुदा तेरे कान्हा ने आज मेरी चूनर रंग में बोर दई,
मैंने अबही मंगाई मोल नई..
नटखट कान्हा की शिकायतें जब नंद के द्वार पहुंचने वाली और भी कई रचनाओं को रचनाकारों ने अपने साहित्य में इसी तरह प्रमुखता से लिया है। कुछ दशक पहले तक गाई जाने वाली ब्रज की कुछ होरियों में एक होरी ये भी है जिसके बोले कुछ इस तरह हैं।
“जुर मिल सब बृजनारियां, पहरों पचरंग सारियां “
भक्ति भाव से परिपूर्ण इन “होरियों” में राधा-कृष्ण की लीलाएं तो नजर आती ही हैं साथ में भगवान शिव, भगवान राम की भक्ति भी नजर आती हैं, जिनमें ये रचनाएं प्रमुख हैं। जिसमें भोलेनाथ माता पार्वती के संग कन्हैया के दर्शनों के लिए बाबा नंद के द्वार पहुंचे हैं इसे एक रचना में कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया है…
सुन जसौदा माय द्वारे पे जोगी अलख जगाये…।
यह रचना इतनी भावपूर्ण है कि सुनकर मन आनंदित हो उठता है। भोलेनाथ का आग्रह ! श्रीकृष्ण की लीला ! और मां यशोदा की असमंजस जैसी स्थिति को इस रचना में बहुत ही भावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
भगवान शिव और श्रीकृष्ण से जुड़ी ऐसी दो रचनाएं प्रमुख रही हैं जिनका गायन होली से पहले महाशिवरात्रि पर भी विशेष रूप से किया जाता रहा है। कृष्ण और शिव के साथ साथ भगवान राम के वनवास जाने के प्रसंग को भी ब्रज की इन होरियों में सुना जा सकता है। इस होली के बोल कुछ इस प्रकार हैं….
वन को चले रघुराई, इन्हें कोई रोको री माई
वन को चले रघुराई…।
होरी में व्यंग्य
भक्ति रस के साथ साथ हास्य और कटाक्ष भी ब्रज की इन होरियों में खूब सुने जाते हैं। जैसे एक रचना है“नारंगी-सारंगी बजावै तो तान नई गावै अनार….”
ऐसी रचनाओं का आधार निश्चित ही खान-पान के साथ हास्य विनोद ही रहा होगा। क्रीड़ा के साथ-साथ हास्य-विनोद का एक और अनूठा उदाहरण इस रचना में सुनाई पड़ता है …
या की गेंद गई है गुड़ खायवै कूं और बल्ला गयौ है मनाएवै कूं…
इस रचना में भगवान श्रीकृष्ण की क्रीड़ास्थली रही वृंदावन के कालीदह नामक प्रसिद्ध स्थान का भी वर्णन मिलता है। संभव है आज की तरह उस इस रचना के निर्माण के वक्त की जनता भी महंगाई से तंग रही हो..इसलिए ऐसी रचना ने जन्म लिया हो..मंहगाई पर कटाक्ष करती भी कुछ रचनाएं ब्रजक्षेत्र के साहित्यकारों के संग्रह में रही हैं।
आज की भागदौड़ भरी और काफी कुछ नीरस सी जिंदगी में साहित्य रस से दूर होते जा रहे लोगों के लिए ये रचनाएं उल्लास और उमंग से भर देती हैं। पढ़िए इन भावनाओं को.
इन रचनाओं को सुनने पर ये रचनाएं भक्तिरस का संचार करती प्रतीत होती हैं.. आपको संस्कृति से जोड़े रखती हैं। जुड़े रहिए अपनी जड़ों से, अपनी संस्कृति से और गुनगुनाते रहिए ब्रज की इन होरियों को
(लेखक सेवानिवृत्त सरकारी शिक्षक हैं, लंबे समय से साहित्य लेखन से जुड़े हैं)