सत्तर-अस्सी के दशक में संगीत नाटक अकादमी या ऐसी ही संस्थाएं रंग शिविरों का आयोजन करती थीं। रंग संस्थाओं द्वारा निजी तौर पर भी रंग शिविर का आयोजन तब ही होता था जब प्रशिक्षक के रूप में हबीब तनवीर, बंशी कौल, देवेन्द्र राज अंकुर, बाबा कारंथ, रंजीत कपूर जैसे अनुभवी और वरिष्ठ रंग निर्देशक शामिल होते थे। 21वीं सदी के हालिया दौर में ऐसे अनुभवी रंग निर्देशकों के बजाय रंग शिविर आयोजित करने वाली संस्थाओं के रंगकर्मी ही प्रशिक्षक की भूमिका निभा रहे हैं।
रंगमंच के प्रति नौजवानों में इतना जबरदस्त क्रेज है कि राज्यों की सीमाओं के पार वे रंग शिविरों में भाग लेने आने लगे हैं। मैंने देखा कि मध्यप्रदेश के सीधी (जहां ट्रेन की सुविधा तक नहीं है) में आयोजित रंग शिविर में इनकी संख्या इतनी थी कि बहुतों को मना करना पड़ा था। भाग लेने के लिए हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली आदि राज्यों से नौजवान आए थे। यह मानना सही नहीं है कि फिल्म व टीवी में जाने की चाहत युवाओं को रंगमंच के प्रति आकर्षित कर रही है। थोड़े अपवाद को छोड़कर उनकी सक्रियता रंगकर्म में ही बनी हुई है।
हिन्दी रंगमंच अभी भी पेशेवर नहीं हो पाया है। शहरी रंगमंच के अलावा लोक रंगमंच की अपनी दुनिया है जहां लोक कलाकार भौगोलिकता, भाषा, शैली आदि के वैविध्य के साथ पूरे देश में रंग विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। गैर हिन्दी भाषी राज्यों का रंगमंच तो परंपरा से ही समृद्ध रहा है। गौर करने की बात यह है कि दुश्वारियों के बावजूद रंगकर्मियों के उत्साह और सक्रियता में कोई कमी नहीं है।