महामारी के दौरान भारत ने खुद को विश्व की फार्मेसी के रूप में स्थापित किया। हमने 90 से अधिक देशों को दो अरब से ज्यादा वैक्सीन खुराक दीं और कोविन जैसे डिजिटल मंच बनाए, जिन्हें वैश्विक प्रशंसा मिली। रूस-यूक्रेन युद्ध ने जब ऊर्जा बाजारों में उथल-पुथल मचाई तो भारत ने चतुराई से इसका सामना किया। रूस से रियायती तेल आयात बढ़ाया, घरेलू महंगाई को स्थिर किया और यूरोप को परिष्कृत ईंधन निर्यात करते हुए भू-राजनीतिक संतुलन बनाए रखा। दुनिया चाहे संरक्षणवादी रुख अपनाए, हम उद्देश्यपूर्ण ढंग से आगे बढ़ेंगे। भारत पर 26 प्रतिशत टैरिफ लागू है, लेकिन हमारे प्रमुख प्रतिस्पर्धी वियतनाम, बांग्लादेश और चीन पर हमने ज्यादा शुल्क लगा है। प्रमुख एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में भारत के आसपास केवल मलेशिया का शुल्क 24 प्रतिशत है, लेकिन वह हमारा प्रमुख निर्यात प्रतिस्पर्धी नहीं है। अपनी विशाल क्षमता, स्थिर नीतियों और अनूठी जनसांख्यिकीय ताकत के साथ भारत दीर्घकालिक लाभ की स्थिति में है। इससे भारत के लिए क्या संकेत हैं? सरल शब्दों में, बिना कोई अतिरिक्त मेहनत किए हम दुनिया की सबसे बड़ी उपभोक्ता अर्थव्यवस्था में लागत की दृष्टि से अधिक प्रतिस्पर्धी हो गए हैं।
जैसे-जैसे अमरीकी खुदरा विक्रेता अपनी आपूर्ति रणनीतियों पर पुनर्विचार कर रहे हैं, भारतीय आपूर्तिकर्ता एक मजबूत और आकर्षक विकल्प के रूप में उभर रहे हैं। वैश्विक व्यापार में तराजू भारत की ओर झुक रहा है। कंपनियों की चीन पर अत्यधिक निर्भरता से बचने की चाहत उन्हें भारत के लोकतांत्रिक लचीलेपन, नीति निरंतरता और विशाल परिचालन क्षमता के कारण इस ओर खींच रही है। अमरीका अब भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। इस विशाल बाजार तक अधिक पहुंच भारत की प्रगति के लिए अपार संभावनाएं पैदा करती है। साथ ही, वाशिंगटन भी अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन का मुकाबला करने के लिए 1.4 अरब भारतीयों के साथ साझेदारी की रणनीतिक जरूरत को समझता है। अमरीका के साथ टकराव की बजाय शुरुआती और रचनात्मक संवाद बनाने के कारण भारत के पास कूटनीतिक बढ़त है। भारत अपनी कूटनीतिक ताकत का उपयोग निर्यात और विश्वसनीय व्यापारिक साझेदारी के लिए अनुकूल व्यापारिक शर्तें हासिल करने के लिए कर सकता है। भारत-अमरीका संबंधों से परे, यह भी देखना महत्त्वपूर्ण है कि यह बदलता व्यापार परिदृश्य भारत के वैश्विक वाणिज्यिक रिश्तों को कैसे ढालेगा। बढ़ते संरक्षणवाद के बीच दुनिया के देश नई व्यापारिक साझेदारियां बना रहे हैं। भारत ने पहले ही इस दौड़ में आगे रहकर पांच वर्षों में संयुक्त अरब अमीरात, ऑस्ट्रेलिया और मॉरीशस जैसे देशों के साथ दस से अधिक मुक्त व्यापार समझौते किए हैं। यूरोपीय संघ, यूके और अन्य के साथ भी बातचीत तेजी से आगे बढ़ रही है। ये समझौते भारतीय निर्यातकों को अचानक होने वाले अवरोधों से बचाने और भारत को एक विविध और भरोसेमंद वैश्विक व्यापारिक ताकत के रूप में स्थापित करने में मदद करते हैं। इसके अलावा भारत की अपनी संरचनात्मक प्रगति में भी बड़ा अवसर छिपा है।
पिछले एक दशक में हमने अपने लोगों, बुनियादी ढांचे और नवाचार की क्षमता में लगातार निवेश किया है। भारत अपनी आत्मनिर्भर, किंतु वैश्विक दृष्टिकोण वाली आर्थिक नीति के साथ इस मौके का उपयोग लॉजिस्टिक्स को मजबूत करने, नियामकीय बाधाओं को कम करने और नवाचार का जीवंत माहौल बनाने जैसे सुधारों को तेज करने के लिए कर सकता है। यह बदलता वैश्विक व्यापारिक परिदृश्य रोजगार सृजन, कौशल विकास और नए व्यापारिक मॉडल व औद्योगिक तंत्रों के उदय को प्रोत्साहित कर सकता है। यह भारत के तेजी से बढ़ते बाजारों में दीर्घकालिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित कर सकता है। विशाल उपभोक्ता आधार और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेजी से बढऩे वाली अर्थव्यवस्था के साथ भारत बदलाव का जवाब देने के लिए और इसका नेतृत्व करने के लिए तैयार है। भारतीय निर्यात संगठन महासंघ का अनुमान है कि इस अवरोध से 50 अरब डॉलर का अवसर पैदा होगा। वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं के इस मूलभूत पुनर्संतुलन में भारत इस नई वाणिज्यिक व्यवस्था के केंद्र में है। हालांकि अपरिहार्य अल्पकालिक प्रभाव भी होंगे।
पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री का अनुमान है कि अमरीकी टैरिफ से भारत की जीडीपी पर 0.1 प्रतिशत का मामूली प्रभाव पड़ेगा। हमारे विशाल घरेलू बाजार, परिपक्व औद्योगिक आधार, कूटनीतिक दायरे और अटल नीतिगत गति के साथ भारत वैश्विक बदलावों की दया पर नहीं है, बल्कि उनके पुनर्निर्देशन की कमान संभाले हुए है। जैसे-जैसे आपूर्ति शृंखलाएं पुनर्गठित होंगी, व्यापारिक गलियारे विकसित होंगे और साझेदार विश्वसनीयता को प्राथमिकता देंगे तो भारत न सिर्फ एक विकल्प होगा, बल्कि सबसे बेहतर रास्ता होगा।