डॉग बाइट के आंकड़े चौंकाते हैं, लेकिन कार्रवाई क्यों नहीं


‘जीव-दया’ भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। ‘पहली रोटी गाय को, आखिरी रोटी श्वान को’ अधिकांश भारतीय चौकों (रसोईघरों) का नियम था, जो कुछ घरों में अब भी प्रचलित है। यहां इंसानों तथा पशु-पक्षियों के सह-अस्तित्व को हमेशा मान्यता मिलती रही है, लेकिन जब श्वान जैसे निराश्रित पशु मनुष्यों को शारीरिक तथा मानसिक आघात पहुंचाने लगें तो सह-अस्तित्व अखरने लगता है।
केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन तथा डेयरी मंत्रालय की एक अप्रेल, 2025 को प्रसारित विज्ञप्ति ‘स्ट्रे डॉग्स’ के अनुसार देश में वर्ष 2022, 2023 तथा 2024 में डॉग-बाइट के क्रमश: 21.90, 30.53 तथा 37.16 लाख मामले दर्ज हुए थे। इस वर्ष केवल जनवरी में ही ऐसे 4.30 लाख मामले दर्ज हुए हैं। यदि इसी रफ्तार से यह सिलसिला जारी रहा तो इस वर्ष 38 प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ 51 लाख से अधिक मामले दर्ज होने की आशंका है। इसके अलावा कई मामले दर्ज ही नहीं हो पाते हैं, वह अलग है। सरकारी आंकड़े वर्ष 2022 से 2024 तक रेबीज से मौतों की संख्या क्रमश: 21, 50 तथा 54 बताते हैं, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट भारत में रेबीज से मौतों की संख्या 18 से 20 हजार प्रतिवर्ष बताती है, जो वैश्विक संख्या का 36 प्रतिशत है। पशुधन गणना-2019 के अनुसार भारत में निराश्रित श्वानों की संख्या 1.53 करोड़ थी, जबकि ‘स्टेट ऑफ पेट होमलेसनेस इंडेक्स ऑफ इंडिया’ की नवीनतम रिपोर्ट स्ट्रीट डॉग्स की संख्या 6.2 करोड़ बताती है। आंकड़ों में इतनी विषमता समझ से परे है लेकिन जाहिर है, यह समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
निराश्रित श्वानों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलना उनकी उग्रता के प्रमुख कारणों में से एक है। इससे वे चिड़चिड़े तथा हिंसक हो जाते हैं। निराश्रित श्वानों की आबादी को नियंत्रित करना स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी है। इनकी संख्या को नियंत्रित करने के लिए ये निकाय ‘पशु जन्म नियंत्रण नियम, 2023’ के अनुसार ‘पशु जन्म नियंत्रण कार्यक्रम’ लागू कर रहे हैं। इन नियमों में निराश्रित श्वानों की आबादी-प्रबंधन के लिए व्यापक प्रावधान किए गए हैं, जिनमे नसबंदी, टीकाकरण तथा सामुदायिक जिम्मेदारी पर जोर दिया गया है। इनका उद्देश्य निराश्रित श्वानों की आबादी को नियंत्रित करना तथा रेबीज के प्रसार को कम करना है। स्ट्रीट डॉग्स को पकडक़र बंध्याकरण तथा टीकाकरण करने के बाद उसी क्षेत्र में छोडऩे के प्रावधान हैं। डॉग बाइट्स तथा रेबीजग्रस्त श्वानों की शिकायत पर इनको पकडक़र निगरानी में रखने, आवश्यक उपचार करने तथा रेबीजग्रस्त होने की आशंका पर उन्हें उनकी प्राकृतिक मृत्यु तक एकांत में रखने के प्रावधान हैं। इन नियमों में निराश्रित श्वानों के लिए इच्छुक व्यक्तियों के सहयोग से भोजन की व्यवस्था के लिए रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन्स तथा स्थानीय निकाय के क्षेत्रीय प्रतिनिधि को जिम्मेदार बनाया गया है। सवाल यह है कि क्या इन प्रावधानों का प्रभावी अनुपालन हो रहा है? आंकड़ों के मकडज़ाल से इतर आम जनधारणा तो यही है कि स्थानीय निकाय निराश्रित श्वानों की आबादी को सीमित नहीं कर पाई हैं। आवारा श्वानों के उत्पात से त्रस्त जनसाधारण ही जानता है कि उसकी शिकायतों पर कितना ध्यान दिया जाता है तथा उन्हें दहशत से राहत के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है। सरकार ने पशु जन्म नियंत्रण कार्यक्रम की प्रभावशीलता का औपचारिक आकलन नहीं किया है। साल दर साल डॉग-बाइट के तेजी से बढ़ते मामले इस कार्यक्रम की प्रभावशीलता पर बड़ा प्रश्नचिह्न है। ये उपाय जितने कागजों पर नजर आते हैं उतने व्यवहार में लागू होते नजर नहीं आते हैं। देश का शायद ही कोई ऐसा भाग हो जहां निराश्रित श्वानों ने आतंक न मचाया हो। स्थानीय सरकारों का दायित्व है कि वे नागरिकों के साथ समन्वय कर आवारा श्वानों के प्रबंधन तथा उन पर नियंत्रण के सभी संभव उपाय करें। इसमें समाज भी वांछित सहयोग प्रदान करे। निराश्रित श्वानों के भोजन की व्यवस्था सुनिश्चित करना भी उतना ही जरूरी है जितना नागरिकों की शिकायतों के त्वरित निपटान की एक सुदृढ़ तथा प्रभावी व्यवस्था लागू करना। इन उपायों का व्यापक प्रचार-प्रसार भी किया जाना चाहिए।
डॉग-बाइट पीडि़तों को मुआवजा देने की एक स्थापित समरूप व्यवस्था का अभाव इस समस्या का दूसरा पहलू है। पीडि़तों को न केवल शारीरिक पीड़ा बल्कि मानसिक संताप तथा आर्थिक नुकसान भी झेलना पड़ता है। विभिन्न न्यायालयों ने ऐसे मामलों में पीडि़तों को मुआवजा दिलवाया है, लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रत्येक पीडि़त न्यायालय के द्वार खटखटा सकता है? ऐसे में आवश्यकता इस बात की भी है कि स्थानीय सरकारें शारीरिक आघात की गंभीरता के आधार पर मुआवजे की एक स्थायी तथा सुगम व्यवस्था अमल में लाए, जिससे पीडि़तों को बिना किसी कठिनाई के उचित मुआवजा मिल सके। यह व्यवस्था बीमा के माध्यम से भी लागू की जा सकती है।
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