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डॉलर का सिक्का खोटा : जरूरतमंद देशों ने इस सोने की छुरी को जानबूझकर अपने गले उतारा

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष (20 मार्च, 2025) के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

जयपुरApr 09, 2025 / 10:36 pm

harish Parashar

इन दिनों अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के नए ‘पारस्परिक टैरिफ’ दुनिया की अर्थव्यवस्था पर गहरा रहे संकट की चर्चा है। अमरीका में भी ट्रंप की नीतियों के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए हैं। भारत में भी इसको लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएं हैं। भारत-पाक युद्ध की छाया में अमरीकी पूंजीवाद को लेकर श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश ने 54 वर्ष पहले ही राष्ट्रपति निक्सन के कार्यकाल में अमरीका की दबाव वाली नीतियों को लेकर आगाह किया था। आलेख के प्रमुख अंश-
अमरीकी डॉलर का खरा समझा जाने वाला सिक्का खोटा निकल गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सहायता के नाम पर अमरीकी पूंजीवाद ने बाजार खोजने के लिए कंचन की माया का प्रसार करना शुरू किया और धीरे-धीरे धरती के ज्यादातर हिस्से को इस मायाजाल में फंसा लिया। जरूरतमंद देशों ने इस सोने की छुरी को जानबूझकर अपने गले उतारा। विदेशी सहायता के नाम पर उनको मिला ब्याज पर कर्जा और कर्जे के नाम पर अमरीकी व्यापारियों ने मुंह-मांगे दामों पर बेचे हथियार, कपास, गेहूं, मशीनें, दूध का पाउडर वगैरह-वगैरह। उनके लिए दुनिया के गरीब मुल्कों में अच्छा खासा बाजार तैयार हो गया और अमरीकी सरकार उनका अहसान जताने लगी। अहसान की आड़ में चलने लगा राजनीति का खेल। कंचन मृग के पीछे पिछड़े और अगुवे सभी देशों की इज्जत की सीता को लूटने की योजना बनाई गई। लेकिन साधुवेश में छिपे राक्षसराज की असलियत ज्यादा दिन छिपी नहीं रही। आज वह अपने संपूर्ण वीभत्स और कुत्सित रूप में मानव सभ्यता के लिए एक चुनौती के रूप में खड़ा है। भारत-पाक संघर्ष के दौरान अमरीकी अफसरों ने भारत को धमकी देने और दबाव से डराने की कुचेष्टाएं शुरू कर दीं। विश्व इतिहास के सबसे भयानक नरसंहार से एक दम आंखे मूंदकर अमरीका नरभक्षक पाकिस्तानी सेनापतियों की हिमायत पर उतर आया है और भारत को दबा रहा है कि वह अपनी सीमाओं की सुरक्षा से भी विमुख हो जाए। भारत को डराया जा रहा है कि अगर उसने सुनी-अनसुनी की तो सहायता बंद कर दी जाएगी। यह सब सुनकर हर भारतवासी के जी में एक बार आता है कि राष्ट्रपति निक्सन को खरी-खरी सुनाए। निक्सन को यह अहंकार है कि डॉलर के जोर से वह समूची मानव सभ्यता और उसके मूल्यों को खरीद सकते हैं। कम से कम भारत की तरफ से तो उनकी भ्रांति दूर हो जानी चाहिए। अगर अमरीका इस तरह बेहूदगी से पेश आया तो भारत का स्वाभिमानी जनविराट डॉलर की तरफ देखना भी पसंद नहीं करेगा। जहन्नुम में जाए डॉलर और उसका अधिष्ठाता अमरीका।
(7 दिसम्बर 1971 के अंक में ‘जहन्नुम में जाय डालर’ आलेख से)

पूंजी ही सब-कुछ
जार्ज बुश जब अमरीका के राष्ट्रपति थे, कहा करते थे कि हमें नई व्यवस्था की आवश्यकता है। शीत युद्ध समाप्त हो जाने के बाद विश्व में जो व्यवस्था होनी चाहिए थी, इसी बात को ध्यान में रखकर बुश नई व्यवस्था की बात करते रहे किन्तु उसकी रूपरेखा स्पष्ट नहीं कर पाए। नई व्यवस्था के नाम पर व्यापार-व्यवसाय का जो वैश्विक रूप सामने आ रहा है, वह तो विशुद्ध पूंजीवादी है। पूंजीवाद में पूंजी ही सब-कुछ है अर्थात पैसा ही माई-बाप होता है। पूंजीवादी व्यवस्था में अर्थ के अतिरिक्त जीवन के किसी अन्य पक्ष का महत्व नहीं है। अत: यह व्यवस्था कभी सुखकर समरस नहीं हो सकती।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से)
म्हारो देस..
अणदेखी करता रह्या,
सदियाँ सूँ सब देस।
अब भी सोच-बिचारज्यो,
म्हारो देस बिसेस।।

अमरीकी तंत्र का मूल मंत्र…
अमरीकी अर्थव्यवस्था के वर्तमान विकास में सबसे बड़ा योगदान व्यापारियों की स्पर्धा, उत्पादन के साधनों और वितरण संगठन का रहा है। खपत के लिए गुंजाइश बनाना और उत्पादन पर कम लागत रखना अमरीकी उद्योग का मूलमंत्र है। यहां जो कुछ बनता है बड़े पैमाने पर बनता और बिकता है। अमरीका अगर कम्प्यूटर बना रहा है तो वह यह भी कोशिश कर रहा है कि उसका उपयोग हर जगह होने लगे। इसलिए उसकी लागत भी कम आएगी और खपत भी बढ़ जाएगी। खपत के लिए रास्ते भी व्यापारी बता देता है। खरीदने के लिए धन की कमी नहीं क्योंकि देश की पूरी कमाई का हिस्सा जनसाधारण के पास पहुंच जाता है। मेरे कहने का मतलब यह है कि अमरीकी लोगों में जहां आर्थिक हित का सवाल आता है वे हर तरह की स्थिति के लिए तैयार रहते हैं और अपने आपको हर परिस्थिति में ढाल लेते हैं।
(‘अमरीका एक विहंगम दृष्टि’ पुस्तक से)

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