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पिछले साल 70 से ज्‍यादा देशों में हुए थे चुनाव, मिश्रित रहे थे परिणाम

कृष्ण जांगिड़, स्वतंत्र लेखक और विचारक

जयपुरJan 15, 2025 / 10:10 pm

Sanjeev Mathur

दुनियाभर में वर्ष 2024 के चुनावों को लेकर मार्क जुकरबर्ग की टिप्पणी पर भारत के कड़े रुख के बाद उनकी कंपनी मेटा ने माफी मांग ली है। इस परिप्रेक्ष्‍य में यह जानना दिलचस्‍प होगा कि साल 2024 दुनिया भर में लोकतांत्रिक गतिशीलता या चुनावों का वर्ष रहा। इस वर्ष दुनिया भर में 70 से अधिक देशों ने अपने नेताओं का चुनाव किया, तथा लगभग 4 बिलियन (4 अरब) लोग, यानी विश्‍व की आधी आबादी ने वोट दिया। एशिया के सुदूर द्वीपों से लेकर अफ्रीका, यूरोप और अमरीका तक, हर महाद्वीप ने 2024 में लोकतंत्र का उत्सव मनाया। इन चुनावों ने केवल वैश्विक राजनीति को ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी नए सिरे से परिभाषित किया है।
2024 के चुनावों का एक प्रमुख पहलू था परिणामों का मिश्रित स्वरूप- कुछ परिणाम अपेक्षित थे, जबकि कुछ ने सभी को चौंका दिया। कुछ देशों में, सत्ता में बैठे नेताओं ने अपनी स्थिति को बरकरार रखा, जबकि कुछ देशों में नए नेताओं का उदय हुआ, जिन्होंने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। अमरीका में, जहां राजनीतिक ध्रुवीकरण चरम पर था, डॉनल्ड ट्रंप ने पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडन को हराकर सत्ता में वापसी की। यह जीत अमरीका में आर्थिक और सामाजिक संकटों के बीच “मेक अमेरिका ग्रेट अगैन” के नारे क समर्थन करते हुए राष्ट्रवाद की बढ़ती लोकप्रियता को दर्शाती है।
इसके विपरीत, रवांडा और रूस जैसे देशों में, सत्ताधारी नेताओं ने विशाल जीत हासिल की, लेकिन यहां लोकतंत्र की प्रक्रिया अलग थी। रवांडा में पॉल कगामे ने चौथी बार बड़े अंतर के साथ चुनाव जीतकर यह साबित किया कि अफ्रीकी देशों में भी सशक्त नेतृत्व का एक लंबा इतिहास है। वहीं, रूस में व्लादिमीर पुतिन ने 87% वोटों से अपनी पांचवीं जीत दर्ज की, जो कि उनकी मजबूत सत्ता को दर्शाता है।
इस वर्ष दुनिया में नए नेताओं का उभार भी देखने को मिला। बोत्सवाना में डुम्बा बोको ने 58 वर्षों से राज कर रही सत्ताधारी पार्टी को हराकर सत्ता में बदलाव की दिशा तय की। मेक्सिको में, क्लाउडिया शिनबाउम ने ऐतिहासिक जीत के साथ देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त किया। इसी तरह आइसलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका, लिथुआनिया, पुर्तगाल, पनामा, यूनाइटेड किंगडम, सेनेगल, ईरान आदि कई देशों में नए नेतृत्व क उदय हुआ।
2024 के चुनावों में मतदान का वैश्विक औसत 61 प्रतिशत था। रवांडा में सबसे अधिक 98.2% मतदान हुआ। इसी तरह, उरुग्वे में भी मतदान प्रतिशत 89.5% रहा, जहां एक नई वामपंथी सरकार ने सत्ता संभाली। लेकिन दूसरी ओर, कुछ देशों में मतदाता सहभागिता काफी कम रही। अरब स्प्रिंग के जन्मस्थान ट्यूनीशिया में केवल 28.8% लोगों ने मतदान किया, जो कि वहां के अस्थिर राजनीतिक माहौल को दर्शाता है। वहीं, ईरान में पिछले वर्ष एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की मृत्यु के बाद हुए राष्ट्रपति चुनाव में मतदान प्रतिशत करीब 40% ही रहा, जो देश में बढ़ते राजनीतिक असंतोष का संकेत है।
भारत, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, यहां 2024 के आम चुनावों के दौरान 65 करोड़ से अधिक नागरिकों ने मतदान किया। मतदाताओं की यह संख्या अमरीका की कुल आबादी से करीब दोगुनी तथा पूरे यूरोप की कुल आबादी से ज्यादा है। इसी साल हुए यूरोपियन यूनियन के चुनाव में जहां करीब 180 मिलियन मतदाताओं ने वोट डाले, वहीं भारत में इससे 3 गुणा से अधिक मतदाताओं ने वोटिंग की। तीन महीने की पोलिंग प्रक्रिया, डेढ़ करोड़ लोगों का पोलिंग स्टाफ, 10 लाख से ज्यादा पोलिंग स्टेशन, 50 लाख से अधिक वोटिंग मशीन, ढाई हजार से ज्यादा पॉलिटिकल पार्टीज़, 8 हज़ार से ज्यादा कैंडिडेट्स के साथ भारत की वाइब्रेंट डेमोक्रेसी ने दुनियाभर को आश्चर्यचकित किया। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी। मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने।
2024 के चुनावों ने यह भी दिखाया कि विश्व भर में लोकतंत्र कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। बांग्लादेश और सीरिया में हुए तख्तापलट तथा उससे पहले वहां के चुनाव को देखें तो नजर आता है कि वहां चुनावी प्रक्रिया दबाव और राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार हुई, जिसके चलते नतीजे जनकांक्षाओं के विपरीत रहे। बेलारूस और अज़रबैजान जैसे देशों में, जहां असल विपक्ष की कोई जगह नहीं थी, वहां चुनावों का उद्देश्य केवल सत्ता का पुनर्निर्माण बनकर रह गया। इसी तरह, वेनेज़ुएला में चुनावी प्रक्रिया के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध हुआ, लेकिन फिर भी निकोलस मादुरो की सरकार ने सत्ता में वापसी की। यह स्थिति न केवल लोकतंत्र के लिए खतरा है, बल्कि ये उदाहरण बताते हैं कि चुनाव भी सत्ता के संरक्षण का उपकरण बनते जा रहे हैं। कुछ देशों में चुनाव केवल एक औपचारिकता बनकर रह गए हैं, जबकि कुछ में विपक्ष और स्वतंत्र मीडिया के अधिकारों को खतरे का सामना करना पड़ा है।

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