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नदियों के संरक्षण का संकल्प लेकर सार्थक करें नवरात्र

पुराने समय में दिन की शुरुआत ही नदियों या कुएं- तालाबों से होती थी। जब से जरूरत का जल नलों के सहारे घरों तक पहुंचा है, लोग नदियों और दूसरे परंपरागत स्रोतों को भूल से गए हैं।

जयपुरOct 04, 2024 / 04:14 pm

विकास माथुर

मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में स्थित घुरारी नदी को महिलाओं के सहयोग से जिस तरह से पुनर्जीवित किया गया, उसकी चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ में भी की। यह प्रयास बताता है कि समाज जागरूक हो तो नदियों को बचाया जा सकता है।
मध्यप्रदेश के ही टीकमगढ़ जिले की बरगी नदी और छतरपुर जिले की बछेड़ी नदी को इसी तरह जन सहभागिता से बचाया गया। पंजाब की कालीबेई नदी को बचाने का प्रसंग तो देश भर में चर्चित रहा है क्योंकि कालीबेई नदी वह नदी है, जिसके किनारे स्वयं गुरूनानक देव ने लंबा समय व्यतीत किया था। संत बलवीर सिंह सिचेवाल ने नाले में बदल चुकी इस नदी को नया जीवन देने का काम शुरू किया था और कारवां बढ़ता गया।
इन उदाहरणों से साफ है कि प्रयास किए जाएं तो नदियों को बचाया जा सकता है। पहले दिन की शुरुआत ही नदियों या कुएं- तालाबों से होती थी। जब से जरूरत का जल नलों के सहारे घरों तक पहुंचा है, लोग नदियों और दूसरे परंपरागत स्रोतों को भूल से गए हैं। हरियाणा में थापना नदी के किनारे रह रहे लोगों ने शायद इसीलिए न केवल इस छोटी नदी को पुनर्जीवित किया बल्कि हर साल सितंबर के अंतिम रविवार को नदी का जन्मदिन मनाने की भी परंपरा शुरू की ताकि लोग नदी से भावनात्मक जुड़ाव महसूस कर सकें।
राजस्थान के बूंदी जिले के सतूर गांव में कुछ पुराविदों ने चंद्रभागा नामक पौराणिक नदी के प्रवाह मार्ग को पहचाना और अब इस नदी के पुनर्जीवन के प्रयासों की खबरें पढऩे में आ रही हैं। कहते हैं कि दुष्यंत और शकुंतला का मिलन कण्व ऋषि के जिस आश्रम में हुआ था, उसके पास मालिनी नामक नदी बहा करती थी। जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटक समुद्रगुप्त की भूमिका में कोटा के कंसुआ में स्थित प्राचीन मंदिर के पास ही कण्व ऋषि के आश्रम का अस्तित्व स्वीकार किया है। इस आश्रम के पास कोई नदी तो नहीं है लेकिन मंदिर की छत पर चढ़कर यदि पाश्र्व में बहने वाले एक नाले को देखा जाए तो वह साफ तौर पर एक छोटी नदी का प्रवाह मार्ग प्रतीत होता है। क्या मालिनी और चंद्रभागा अपने सुनहरे दिनों की ओर लौट सकेंगी?
देश के हर हिस्से में नदियां खासतौर पर छोटी नदियां उपेक्षा की शिकार हैं और उन्हें अपने उद्धार के लिए सार्थक प्रयासों की प्रतीक्षा है। महानगरों में तो छोटी नदियों के प्रवाह क्षेत्र को अतिक्रमण करके उन पर बस्तियां बसा दी गई हैं। यही कारण है कि जरा-सी बारिश में बस्तियों में बाढ़ जैसे हालात पैदा हो जाते हैं।
मुंबई की मीठी, दहिसार, पईसर; चेन्नई की कोऊम, अडयार और कोर्तलाईयार नदियां अनियोजित नगर नियोजन की भेंट चढ़ गई हैं। उत्तरप्रदेश की तिलोदकी, तमसा, मड़हा, बिसुही, कल्याणी, पांवधोयी, काली हिंडन, मनसियता, गुंता जैसी नदियां अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रही हैं। बिहार की भसना, वापी, कमला, पलटनिया नदियों की भी यही कहानी है। यह सूची बहुत दूर तक जाती है और बताती है कि जिन नदियों ने अपने प्रेम से सभ्यताओं को सींचा है, हम उनके प्रति कितने संवेदनहीन हैं।
राष्ट्रीय शोध संस्थान, नागपुर ने कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी सहित देश की चौदह प्रमुख नदियों में देश का 85 प्रतिशत जल प्रवाहित होता है लेकिन ये नदियां इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि देश की 66 प्रतिशत बीमारियों का कारण बन रही हैं। यों भारत की 223 छोटी-बड़ी नदियों के बारे में पाया गया है कि व्यक्ति न तो उनके जल का आचमन कर सकता है और न ही उनमें स्नान कर सकता है। यह स्थिति डराती है। इस भय से उबरने का यही सार्थक रास्ता है कि हम छोटी नदियों के संरक्षण पर भी खास ध्यान दें क्योंकि छोटी नदियां ही अपने प्रवाह का जल बड़ी नदियों में उलीचकर उन्हें स्वस्थ और प्रखर करती हैं। नदियों को हमारी परंपराओं में ‘मां’ का संबोधन दिया जाता है। नवरात्र माता की आराधना का पर्व है। इस नवरात्र में हम सब नदियों के संरक्षण का संकल्प लें।
— अतुल कनक

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