कहा जा रहा है कि अमरीकी गणनाकारों ने प्रत्येक देश से अमरीका का व्यापार घटा लिया और उसे उस देश से हो रहे आयात से भाग देकर उनकी घाटा दर निकाली और उसे आधा कर उस देश की टैरिफ दर की घोषणा कर दी। दुनिया का कोई भी अर्थशास्त्री इस अजीब फॉर्मूले का समर्थन नहीं करेगा। आश्चर्य की बात है कि यदि व्यापार घाटा ही गणना का आधार है तो फिर ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अरब देश और अर्जेन्टीना देशों पर टैरिफ क्यों और कैसे लगाया है? इन देशों से तो अमरीका का व्यापार घाटे में नहीं है। कंजरवेटिव कानूनविदों के समूह ने इसे न्यायालय में चुनौती दी है। ट्रंप प्रशासन ने 60 व्यापार घाटे वाले देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाया है। यह दर वर्तमान ड्यूटी समान के अतिरिक्त है। बाकी सभी देशों पर 10 प्रतिशत टैरिफ होगा। चीन पर 34, बांग्लादेश पर 37, पाकिस्तान 29, श्रीलंका 44, वियतनाम 46, थाईलैंड 36, इंडोनेशिया 32, भारत 26, जापान 24, यूरोपीय 20 और ब्रिटेन पर 10 प्रतिशत टैरिफ लगाया गया है।
भारत के संदर्भ में देखें तो चुनौतियां निश्चित रूप से हैं। लेकिन जो परिस्थितियों को अवसर में और अवसरों को समृद्धि में बदलते हैं, वे ही विजेता होते हैं। यदि भारत का अमरीका को निर्यात 10 प्रतिशत भी प्रभावित होता है तो हमारी जीडीपी 0.2 प्रतिशत कम हो सकती है। किंतु अन्य देशों के निर्यात में कमी से भारत का व्यापार घटेगा नहीं, अपितु बढ़ेगा। अमरीका में टैरिफ के कारण कई ऐसी वस्तुएं जो अत्यावश्यक नहीं हैं, उनका उपयोग कम हो जाएगा। जैसे डेयरी उत्पाद, जवाहरात, ऑटोमोबाइल, मेटल्स आदि। भारत का निर्यात इन वस्तुओं में घटेगा। किंतु आवश्यक उपयोग की वस्तुएं जो सामान्यत: अमरीका में कम उत्पादित होती हैं या नहीं होतीं- जैसे टेक्सटाइल्स, फार्मा, आइटी सेमीकंडक्टर चिप्स, मोबाइल फोन मशीनरी, खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक्स, कैपिटल गुड्स, सोलर पैनल, सस्ती कारें, मिनरल फ्यूल, स्टोन, ऑर्गेनिक केमिकल्स आदि का निर्यात बढ़ सकता है। क्योंकि प्रतिस्पर्धी चीन, थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि की टैरिफ दरें भारत से बहुत अधिक हैं। इसके अतिरिक्त विश्व की सप्लाई चेन में बदलाव भी भारत के पक्ष में जाने की संभावना है।
ट्रंप के इस ‘टैरिफ वॉर’ के कई उद्देश्य दिखते हैं, जैसे- अमरीका के स्थानीय उद्योगों की मजबूती यानी मेक इन अमरीका को बढ़ावा देना, स्थानीय उद्योगों के माध्यम से अमरीका में नए रोजगार पैदा करना, अमरीका के व्यापार घाटे को कम कर टैरिफ की आय से क्षतिपूर्ति करना, खर्चों में कटौती करना तथा बॉन्ड्स की दरों में कमी कर ब्याज के खर्चों में कटौती करना। उल्लेखनीय है कि ट्रंप के आने के बाद बॉन्ड की यील्ड 4.79 प्रतिशत से गिरकर 4.17 प्रतिशत हो गई यानी 0.62 प्रतिशत घटी है। अमरीका पर 36.5 ट्रिलियन डॉलर (भारत की जीडीपी का 10 गुना) का कर्ज है यानी 2.26 ट्रिलियन डॉलर की बचत है। कहा जा रहा है कि टैरिफ लगाने से अमरीका में महंगाई बढ़ेगी, रोजगार व विकास दर घटेगी, शेयर बाजार में मंदी का असर आएगा और डॉलर गिरेगा। यह प्रतिक्रिया शुरू भी हो चुकी है। भारत को दिन-प्रतिदिन बदल रही स्थितियों को देखते हुए सोच समझकर कदम उठाने होंगे। इस ट्रेड वॉर में अभी कई मोड़ आएंगे। अत: जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। धैर्य रखना चाहिए किंतु सचेत, सजग और तैयार रहना चाहिए। भारत के लिए आने वाले अवसरों को खोना नहीं चाहिए। इसके लिए कई कार्ययोजनाओं पर कार्य किया जा सकता है। जैसे- अमरीका के साथ चल रहे द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) पर तेजी से किंतु मजबूती के साथ आगे बढ़ा जाए, जो वस्तुओं तक ही सीमित रखा जाए जहां टैरिफ सीधा समान स्तर पर अमरीकी माल से स्पर्धा करता है। सेवा, पेटेंट, आइटी, कृषि उत्पाद और खाद्य सुरक्षा और पिछड़े क्षेत्रीय विकास कार्यक्रमों को इस द्विपक्षीय समझौते के दायरे से बाहर रख भारत के व्यापक हितों की रक्षा की जानी चाहिए।
जब अधिक टैरिफ वाले देशों से उत्पादन भारत आने लगे, एमएनसी निवेश के लिए व्यापक पॉलिसी सुधार आवश्यक होंगे जो विदेशी निवेश को आकर्षित करेंगे। मेक इन इंडिया को मजबूती देने के लिए सस्ता कच्चा माल उपलब्ध कराना, वैल्यू चेक को मेक इन इंडिया के अनुकूल बनाना भी आवश्यक है। इसके लिए नियामक आयोग प्रस्तावित है। चीन जैसे देश जिन पर भारी टैरिफ है, वे अपना अतिरिक्त माल भारत में डम्प कर सकते हैं। अत: भारत को इस ओर पर भी सतर्क रहकर, ड्यूटी लगाने के लिए तैयार रहना होगा। भारत को आर्थिक, रोजगार और औद्योगिक कानूनों को सुगम औद्योगिक व व्यापार व्यवस्था (इज ऑफ डुइंग बिजनेस) के लिए तत्काल सुधार (रिफॉम्र्स) की ओर बढऩा होगा। बढ़े हुए टैरिफ के प्रभावों, प्रक्रियाओं, सुधारों और उठाए जाने वाले कदम प्रस्तावित करने और उन्हें त्वरित गति से लागू करने के लिए एक विशेषज्ञों की टास्क फोर्स बनाना भी आवश्यक है, जो लघु व दीर्घकालीन योजना पर कार्य करे।